नमस्कार दोस्तों, दोस्तों आज हमारा विषय है थिर अथिर से परे है वह परम थीर परमात्मा I वह परमपिता परमात्मा, अमर परमात्मा, अनंत सागर, समस्त थिर अथिर से परे है I
सबसे पहले हमें थिर अथिर समझना होगा, कि थिर अथिर है क्या, थिर का मतलब होता है, जो हिले डुले नहीं, जो कहीं आता जाता नहीं, जिसमें कोई गति नहीं, उसको थिर कहा जाता है, ना ही उसको कोई बाह्य और ना ही अंतः किसी भी तरह का बल उसको गति ना दे सके, गतिमान ना कर सके, वो थिर होता है
और अथिर का मतलब जिसमें गति होती है, जो चलाएमान है, उसको अथिर कहते हैं,
तो थिरता और अथिरता यह दोनों ही मन के गुण हैं, मन कुछ क्षण के लिए थिर रह सकता है, कुछ वर्ष युगों के लिए वो थिर हो सकता है, लेकिन परम थिर नहीं हो सकता, अमरता से वो परम थिर नहीं हो सकता, वह हमेशा के लिए थिर नहीं हो सकता, जो शाश्वत रूप से थिर है, जो हमेशा से थिर है, वो केवल सर्वव्यापी परमात्मा है, इसके सिवाय अनंत सृष्टिओं में, अनंत ब्रहमंडों में, अनंत तत्व विधाओं में, कोई भी परम थिर नहीं है उस परमात्मा के सिवाय I
इसीलिए उस परम थिर के आधार पर यह अनंत सृष्टि है, परम थिर ही आधार हो सकता है, और कोई आधार नहीं हो सकता, लेकिन परम थिर परमात्मा किसी की उत्पत्ति नहीं करता, क्योंकि उत्पत्ति अपने आप में थिरता का खंडन करना है, और वो परम थिर है, वो कभी अपनी थिरता का खंडन नहीं होने देता, ये उसका शाश्वत गुण है, वह परमथिरता को खंड नहीं होने देता, ना ही उसकी कभी परम थिरता खंड होती I
इसीलिए वो सृष्टि रचना और प्रलय दोनों से परे है I ये सृष्टि की रचना और प्रलय, ये दोनों भी एक शाश्वत व्यवस्था है, यह बनती और बिगड़ती है I ये जो बहाव है बनने और बिगड़ने का, ये भी आदि अनादि और शाश्वत है, लेकिन परम शाश्वत अमर अविनाशी वो निहतत्व, वो परमथिर ही है, वो परम मुक्त है, वो परम मुक्त अवस्था, परम थीर अवस्था है, और जो मन की व्यवस्था है, ये जो सृष्टियों की व्यवस्था है, वह बंधन वाली व्यवस्था है, और यह भी शाश्वत व्यवस्था है, यह बनती है और फिर बिगड़ जाती है, फिर बिगड़ती है फिर बन जाती है, कभी ऐसा नहीं होता कि यह बिगड़ गई फिर कभी नहीं बनी हो, ये बन जाती है I
प्रतिपल रचना हो रही है, और प्रतिपल संहार भी हो रहा है, प्रतिपल बिगड़ भी रही है I कई सृष्टियाँ प्रतिपल बन रही हैं, और कई सृष्टियाँ प्रतिपल नष्ट भी हो रही हैं, ये अनंत सृष्टिओं का लेखा है, यहां पर हर पल कोई ना कोई सृष्टि बनती है, और कोई ना कोई सृष्टि बिगड़ती है I
इसीलिए ये सारे सृष्टियों का विधान, अनंत सृष्टियों का विधान, अनंत शरीरों का विधान, ये सब अथिर हैं, ये लगता है कि थिर हैं, लेकिन थिर नहीं होते, ये कुछ समय के बाद वापस अथिर हो जाते हैं, इसीलिए ये मुक्त नहीं है, इसीलिए यहां पर सुख-दुख आनंद जैसे गुण पाए जाते हैं I यहां पर सुख भी मिलता है, तो दुख भी मिलता है, और आनंद भी मिलता है, यहां अद्वैत और द्वैत व्यवस्था दोनों होती हैं I
तो समस्त द्वैत व्यवस्था और अद्वैत व्यवस्था से पार वो परम परमात्मा ही है, वो परमथिर परमात्मा ही है, इसीलिए उस परमथिर परमात्मा को प्राप्त करना है, तो समस्त थिरता और अथिरता को गिराना होगा, और समस्त थिरता और अथिरता को गिराने का स्पष्ट सा मतलब निकलता है, कि आपको, आपके समस्त मन गिराने होंगे, परम चैतन्य गिराना होगा, समस्त तात्विक व्यवस्था को गिराना होगा, परम स्थूल से लेकर परमसूक्ष्म व्यवस्था को आप को गिराना होगा, और वो बिना परमात्मा की परम थिर की कृपा के नहीं गिर सकती I
परम थिर में वो परम आकर्षण है, कि जैसे ही आप उसके सम्मुख होते हो, उसकी कृपा के सम्मुख होते हो, तो आपके सारे मनों के तारतम्य गिरना शुरू हो जाते हैं, और अंत में आप परम ही बचते हो, जो बचा हुआ है, वही है, वो आप बनते नहीं हो, कि आप बन जाओगे, या वहां पहुंच जाओगे, नहीं, वो तो सर्वव्यापी है वही बचता है I
तो कहा जाता है, कि परम थिर को न तो देखा जा सकता, ना उसको महसूस किया जा सकता, वही बना जा सकता है, और वही बनने का मतलब ये है, आप जो हो, वो आपको पूरा अस्तित्व गिराना होगा, धीरे-धीरे आपको सब समझ आएगा I
ये बहुत बड़ा धन है, और इतना बड़ा धन जो परम धन है, उसको प्राप्त करने के लिए कृपा जरूरी है, और कृपा के लिए मन के सारे ज्ञान अज्ञान को हटाना अति आवश्यक है I मन में भी मन के भी थिर गुण हैं, अथिर गुण हैं, मन की भी निर्मोही गुण हैं, मन में भी सहजता होती है, लेकिन यह सब क्षणिक है, अगर आप मन की निर्मोहिता के पीछे भागोगे, तो निश्चित ही आप मोह की तरफ भाग रहे हो I आपको परम निर्मोहिता की तरफ सम्मुख होना है, जो कि परमथिर स्वयं है I
हम हमेशा कहते हैं, कि मन की और तन की सहजता हमेशा असहजता में बदलती है, इसलिए हमको परम सहजता, पूर्ण सहजता जो परम थिर की सहजता है, उसके सम्मुख होना होता है, वही सहजता जब मन पर कृपा होती है, तो मन के सारे तारतम्य टूटकर मन के संचालन से जब हम हटकर आत्म संचालित हो जाते हैं, सत्य संचालित हो जाते हैं, या परम थिर संचालित होते हैं, ये सब एक ही है I
जब परम थिर संचालित हो जाते हैं, तब हम जीते जी मुक्त हो जाते हैं I मैंने हमेशा कहा है कि आपको गुणों के पीछे नहीं भागना, कि आपको निर्मोही होना है, या आपको समस्त चाहतों से परे होना है, इच्छाओं से परे होना ही नहीं, इनके पीछे मत भागिए आप I इन गुणों को प्राप्त करने के पीछे मत भागिए, बस उस परम थिर के सम्मुख हो जाइए,.... और फिर जब आपको कृपा मिलेगी, तो ये मन के गुण नहीं मिलेंगे आपको, वो परम गुण मिलेंगे, जो स्वयं परमात्मा के हैं, जो आप में भी रम रहा है वो परमात्मा I
वो परमात्मा हर जगह है I परम विदेही ही परम थिर हो सकता है, जहां देह है, किसी भी तरह की देह हो, समस्त देहैं अथिर होती हैं, हो सकता है, कुछ समय के लिए वो थिरता प्राप्त कर लें, लेकिन वह थिरता एक भ्रम है इलूज़न है, क्योंकि वो थिरता, अमर थिरता नहीं है, वो कुछ समय की थिरता है I
इसीलिए अगर परमथिरता को प्राप्त करना है, तो परम विदेहिता को प्राप्त करना होगा, और परम विदेही, मैं बार-बार कहता आया हूँ, कि परम विदेही होने का मतलब ही यही है, कि समस्त देह और समस्त मनों को गिराना, तभी आप उस परम थिर को प्राप्त कर पाओगे I
समस्त परम आनंदों का भी आनंद है परमथिर, जितने भी आनंद आपने महसूस किए हैं अब तक, वो सब इंद्रिय जनित आनंद हैं, इंद्रियों के ही आनंद हैं I आपको वो परम आनंद, जो परम विदेही आनंद है, वो अनंत आनंद है, वो पूरा भरा हुआ आनंद है, ना वो घटता है, ना बढ़ता है, क्योंकि वो इतना भरा हुआ है, पूरा भरा हुआ, इसलिए उसको निरानंद कहा गया है I
समस्त मन के आनंदो से परे, वो परम सागर है आनंद का I उस परमात्मा में ही ये सारी सृष्टियाँ हैं, उसी परमात्मा में ये सारी सृष्टियां समाई हुई हैं I वो परमात्मा परम सागर है, परम थिर सागर है, अनंत सागर है वो, और इसी सागर में ये सारी अनंत सृष्टियाँ समाई हुई हैं, वो अथाह आनंद का, जो कभी घटता बढ़ता नहीं, कांस्टेंट आनंद का, परम आनंद सागर है, परम सर्वव्यापी सागर है,वो ऐसा सागर है, जो हर जगह पर है, बस हम ही उसको जान नहीं पाए I हमने उस सागर को जाना ही नहीं, जब उस सागर को जान लोगे, तो फिर आपको इस संसारी जीवन में कुछ भी अप्राप्य नहीं रहेगा, समझ लो आपको सब कुछ मिल जाएगा, वही तो है, जो आपको परम संतुष्टि देता है I
अन्यथा आप कुछ भी कर लीजिए, जितनी चाहे साधनाएं कर लीजिए, जितनी चाहे सुमिरन कर लीजिए, आपको संतुष्टि नहीं मिलेगी, परम संतुष्टि नहीं मिलेगी I कभी कभार हो सकता है, आपको संतुष्टि का भ्रम हो जाए, कि हां इस साधना से मुझे संतुष्टि मिल रही है, लेकिन कुछ समय के बाद वो टूट जाएगी, क्योंकि वह अथिर संतुष्टि है, परम थिर संतुष्टि आपको परम परमात्मा, सर्वव्यापी परमात्मा, परम सागर, अनंत सागर जो परमात्मा है, जो परम थिर सागर है, उसी से मिलेगी, वहीं आप को परम शांति, परम संतुष्टि और ऐसा धीरज,... मन का धीरज नहीं, जो कभी घटे बढ़े, ऐसा परम धैर्य मिलेगा आपको, जो कभी कम नहीं होगा I
एक थिर धैर्य, परम थिर धैर्य मिलेगा आपको I परमात्मा के सम्मुख होते ही वो सारा खजाना खुल जाता है, जिस खजाने की आपको अनंत जन्मों से तलाश थी, वही है एक इन सभी खजाने को देने वाला,.. और उसने खजाना ऐसा नहीं है, बंद किया हुआ है,... तुमने ही कभी उस खजाने की तरफ मुंह नहीं किया, तुमने ही कभी उस खजाने की तरफ देखा नहीं, इतना विराट, अनंत, भरा हुआ खजाना है वो, वहां वो सब है, जो आपकी समस्त अतृप्तियों को, समस्त तृष्णाओं को पूरा भर देगा, पूरा तृप्त कर देगा, वही वो परमात्मा है, जो आपको परम संतुष्टि देगा I
परम थिरता में ही परम आकर्षण है, समस्त आकर्षणों का ऐसा आकर्षण है, जो समस्त प्रकृतियों को आपके अनुकूलित होने पर मजबूर करता है, समस्त प्रकृतियाँ, वो तो परम अक़र्ता है परमात्मा, लेकिन इस परम अक़र्ता परमात्मा में स्वतः ऐसा गुण है, कि जो भी जीव इसके सम्मुख होता है, परम सारी अनंत सृष्टियाँ, इसी लोक की सृष्टि नहीं, अनंत सृष्टियाँ उसके अनुकूलित होने के लिए बाध्य हो जाती हैं, और ये समस्त प्रकृतियों का नियम है I
ये समस्त प्रकृतियों का एक ऐसा विधान है, जो ये प्रकृतियाँ भी नहीं जान पाईं, क्योंकि समस्त प्रकृतियों का आधार सत्य है, और सत्य के सम्मुख जो हो जाए, तो सारी प्रकृतियाँ, उसका जो आधार है, उस आधार के समर्पित जीव को अनुकूलन देती है, इसलिए ही परम थिर के सामने परम सुरक्षा मिलती है, वही है आपको परम सुरक्षित करने वाला, परम संतुष्ट करने वाला, सारा आपके लिए सारा खजाना खोलने वाला I
इसीलिए आपको किसी से मांगने की जरूरत नहीं पड़ती, जो मांग रहा है, दान दक्षिणा ले रहा है, समझिए उस पर कृपा नहीं है, उसको मिल नहीं रहा परमात्मा से, इसलिए आपके सामने हाथ फैलाया जा रहा है, अगर परमात्मा कृपा होती और जो आपको फिर कृपा नहीं दे पाया, खुद कृपा ले नहीं पाया तो, कैसे आपको कृपा दे पाएगा I जीव का गुरु बनना, गुरु शब्द ही अहंकार है, गुरु का मतलब ही समझिए अहंकार, जैसे कोई गुरु बन गया, तो समझ लो वो अहंकारी बन गया, क्योंकि परम गुरु तो परम परमात्मा ही है I
सबका एक ही गुरु है, और सदियों से अनंत युगों से वही गुरु रहा है, ये गुरु तो कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते, यह गुरु तो अवसरवादी हैं, इनके पीछे कोई ना कोई उद्देश्य होता है, चाहे इस लोक के गुरु हों, चाहे परलोक के गुरु हों I किसी भी लोक से कोई गुरु आता है, तो पीछे कोई मकसद होता है, लेकिन परम गुरु जो है, सत्य गुरु, परम थिर गुरु, उसका आपसे कोई मकसद नहीं है, जैसे ही आप उसके सम्मुख होंगे, आपको सारा सत्य सनातन ज्ञान मिल जाएगा, फिर आपको किसी के सामने ना ज्ञान के लिए हाथ फैलाना, ना ही किसी अन्य आवश्यकताओं के लिए हाथ फैलाना पड़ेगा, यही उस परमात्मा की समर्थता है, और यही उस परमात्मा की महिमा है I
कुछ लोग कहते हैं, कि आप परमात्मा के नाम पर प्रचार क्यों कर रहे हैं, तो हम परमात्मा के नाम पर प्रचार नहीं करते, हमको पता है कि परमात्मा का प्रचार नहीं किया जा सकता, परमात्मा स्वयं समर्थ है, जिस तक उसका ज्ञान पहुंचना है, चाहे वो कहीं भी हो, किसी भी सृष्टि में हो, वहां पहुंचाता है वो परमात्मा I हम जीवों की, किसी की भी कोई क्षमता नहीं है, कि हम प्रचार करें, हम तो केवल उसकी महिमा कर रही हैं, उसकी महिमा का जो आनंद है, वह बिरलों को मिला करता है, केवल महिमा कर रहे हैं I प्रचार करना भी एक अभिमान है, हम कोई प्रचार नहीं कर रहे हैं I प्रचार करना ही परमात्मा की समर्थता पर प्रश्नचिन्ह लगाना है, कि आप को उसके प्रचार की आवश्यकता पड़ी, इसका मतलब वो असमर्थ है अपना प्रचार करने में I
जो परमात्मा सर्वव्यापी है, परम थिर है, ऐसा कोई कोना नहीं है, ऐसा कोई कण नहीं, ऐसी कोई जगह नहीं, चाहे शून्य हो या तत्व हों, सब में वो रमा हुआ है, उसको किसी भी प्रकार के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती I जब भी कोई भी उसकी कृपा के सम्मुख होता है, उसकी समर्थता ऐसी है, कि उसके रोम-रोम में वो सत्य ज्ञान प्रकट कर देता है, वो आपसे किसी भी तरह से कोई गुलामी नहीं कर पाता, वह आपके सारे गुलामी बंधन तोड़ देता है, दासातन वाले बंधन तोड़ देता है, आपको स्वयं सम्राट बना देता है, आपकी समस्त चिंताओं को तोड़ देता है, समस्त परवाहों को खत्म कर देता है, वो ऐसा परम थिर परमात्मा है I
तो आज का जो हमारा विषय था, कि वो सर्वव्यापी परमात्मा परम थिर है, वो समस्त थिर और अथिर से परे है, उसकी थिरता कभी खंड नहीं होती, इसीलिए वो मुक्त और परम शांत है, इसीलिए वो परम अक़र्ता है, परम अक़र्ता में ही सर्व मुक्त गुण होते हैं, बाकी जो थिर अथिर अक़र्ता या कर्ता है, वह सारे बंधनात्मक हैं, वो बंधन में ही हैं, इसलिए ना हमको कहीं समाना है, ना ही कहीं जाना है, जहां हो वहां ठहर कर पूर्ण मरण की तैयारी करो, पूर्ण मरण, समस्त मनों को गिराने की, और समस्त मन उसकी कृपा के सम्मुख होकर ही गिरेंगे, अन्यथा मरते तो बहुत जन्मों से आए हो आप I
अब आपको पूर्ण मरण, पूर्ण मरण की तैयारी करनी होगी, तभी जाकर आप उस परम थिर को प्राप्त कर पाओगे I हमको केवल यह देह नहीं छोड़नी है, अगर देह से कुछ निकला, तो समझिए कि फिर जन्म होगा आपका, अब ऐसा मरण हो, कि कुछ निकले ही नहीं देह से, परम चैतन्य भी शांत होकर, ठहर कर शरीर के सारे तारतम्य टूट जाए उसके, बस फिर परम थिर ही बचेगा, जो थिर सर्वदा से थिर था I धन्यवाद I