top of page


नमस्कार दोस्तों, दोस्तों आज हमारा विषय है थिर अथिर से परे है वह परम थीर परमात्मा I वह परमपिता परमात्मा, अमर परमात्मा, अनंत सागर, समस्त थिर अथिर से परे है I


सबसे पहले हमें थिर अथिर समझना होगा, कि थिर अथिर है क्या, थिर का मतलब होता है, जो हिले डुले नहीं, जो कहीं आता जाता नहीं, जिसमें कोई गति नहीं, उसको थिर कहा जाता है, ना ही उसको कोई बाह्य और ना ही अंतः किसी भी तरह का बल उसको गति ना दे सके, गतिमान ना कर सके, वो थिर होता है

और अथिर का मतलब जिसमें गति होती है, जो चलाएमान है, उसको अथिर कहते हैं,


तो थिरता और अथिरता यह दोनों ही मन के गुण हैं, मन कुछ क्षण के लिए थिर रह सकता है, कुछ वर्ष युगों के लिए वो थिर हो सकता है, लेकिन परम थिर नहीं हो सकता, अमरता से वो परम थिर नहीं हो सकता, वह हमेशा के लिए थिर नहीं हो सकता, जो शाश्वत रूप से थिर है, जो हमेशा से थिर है, वो केवल सर्वव्यापी परमात्मा है, इसके सिवाय अनंत सृष्टिओं में, अनंत ब्रहमंडों में, अनंत तत्व विधाओं में, कोई भी परम थिर नहीं है उस परमात्मा के सिवाय I


इसीलिए उस परम थिर के आधार पर यह अनंत सृष्टि है, परम थिर ही आधार हो सकता है, और कोई आधार नहीं हो सकता, लेकिन परम थिर परमात्मा किसी की उत्पत्ति नहीं करता, क्योंकि उत्पत्ति अपने आप में थिरता का खंडन करना है, और वो परम थिर है, वो कभी अपनी थिरता का खंडन नहीं होने देता, ये उसका शाश्वत गुण है, वह परमथिरता को खंड नहीं होने देता, ना ही उसकी कभी परम थिरता खंड होती I


इसीलिए वो सृष्टि रचना और प्रलय दोनों से परे है I ये सृष्टि की रचना और प्रलय, ये दोनों भी एक शाश्वत व्यवस्था है, यह बनती और बिगड़ती है I ये जो बहाव है बनने और बिगड़ने का, ये भी आदि अनादि और शाश्वत है, लेकिन परम शाश्वत अमर अविनाशी वो निहतत्व, वो परमथिर ही है, वो परम मुक्त है, वो परम मुक्त अवस्था, परम थीर अवस्था है, और जो मन की व्यवस्था है, ये जो सृष्टियों की व्यवस्था है, वह बंधन वाली व्यवस्था है, और यह भी शाश्वत व्यवस्था है, यह बनती है और फिर बिगड़ जाती है, फिर बिगड़ती है फिर बन जाती है, कभी ऐसा नहीं होता कि यह बिगड़ गई फिर कभी नहीं बनी हो, ये बन जाती है I


प्रतिपल रचना हो रही है, और प्रतिपल संहार भी हो रहा है, प्रतिपल बिगड़ भी रही है I कई सृष्टियाँ प्रतिपल बन रही हैं, और कई सृष्टियाँ प्रतिपल नष्ट भी हो रही हैं, ये अनंत सृष्टिओं का लेखा है, यहां पर हर पल कोई ना कोई सृष्टि बनती है, और कोई ना कोई सृष्टि बिगड़ती है I

इसीलिए ये सारे सृष्टियों का विधान, अनंत सृष्टियों का विधान, अनंत शरीरों का विधान, ये सब अथिर हैं, ये लगता है कि थिर हैं, लेकिन थिर नहीं होते, ये कुछ समय के बाद वापस अथिर हो जाते हैं, इसीलिए ये मुक्त नहीं है, इसीलिए यहां पर सुख-दुख आनंद जैसे गुण पाए जाते हैं I यहां पर सुख भी मिलता है, तो दुख भी मिलता है, और आनंद भी मिलता है, यहां अद्वैत और द्वैत व्यवस्था दोनों होती हैं I


तो समस्त द्वैत व्यवस्था और अद्वैत व्यवस्था से पार वो परम परमात्मा ही है, वो परमथिर परमात्मा ही है, इसीलिए उस परमथिर परमात्मा को प्राप्त करना है, तो समस्त थिरता और अथिरता को गिराना होगा, और समस्त थिरता और अथिरता को गिराने का स्पष्ट सा मतलब निकलता है, कि आपको, आपके समस्त मन गिराने होंगे, परम चैतन्य गिराना होगा, समस्त तात्विक व्यवस्था को गिराना होगा, परम स्थूल से लेकर परमसूक्ष्म व्यवस्था को आप को गिराना होगा, और वो बिना परमात्मा की परम थिर की कृपा के नहीं गिर सकती I


परम थिर में वो परम आकर्षण है, कि जैसे ही आप उसके सम्मुख होते हो, उसकी कृपा के सम्मुख होते हो, तो आपके सारे मनों के तारतम्य गिरना शुरू हो जाते हैं, और अंत में आप परम ही बचते हो, जो बचा हुआ है, वही है, वो आप बनते नहीं हो, कि आप बन जाओगे, या वहां पहुंच जाओगे, नहीं, वो तो सर्वव्यापी है वही बचता है I


तो कहा जाता है, कि परम थिर को न तो देखा जा सकता, ना उसको महसूस किया जा सकता, वही बना जा सकता है, और वही बनने का मतलब ये है, आप जो हो, वो आपको पूरा अस्तित्व गिराना होगा, धीरे-धीरे आपको सब समझ आएगा I


ये बहुत बड़ा धन है, और इतना बड़ा धन जो परम धन है, उसको प्राप्त करने के लिए कृपा जरूरी है, और कृपा के लिए मन के सारे ज्ञान अज्ञान को हटाना अति आवश्यक है I मन में भी मन के भी थिर गुण हैं, अथिर गुण हैं, मन की भी निर्मोही गुण हैं, मन में भी सहजता होती है, लेकिन यह सब क्षणिक है, अगर आप मन की निर्मोहिता के पीछे भागोगे, तो निश्चित ही आप मोह की तरफ भाग रहे हो I आपको परम निर्मोहिता की तरफ सम्मुख होना है, जो कि परमथिर स्वयं है I


हम हमेशा कहते हैं, कि मन की और तन की सहजता हमेशा असहजता में बदलती है, इसलिए हमको परम सहजता, पूर्ण सहजता जो परम थिर की सहजता है, उसके सम्मुख होना होता है, वही सहजता जब मन पर कृपा होती है, तो मन के सारे तारतम्य टूटकर मन के संचालन से जब हम हटकर आत्म संचालित हो जाते हैं, सत्य संचालित हो जाते हैं, या परम थिर संचालित होते हैं, ये सब एक ही है I


जब परम थिर संचालित हो जाते हैं, तब हम जीते जी मुक्त हो जाते हैं I मैंने हमेशा कहा है कि आपको गुणों के पीछे नहीं भागना, कि आपको निर्मोही होना है, या आपको समस्त चाहतों से परे होना है, इच्छाओं से परे होना ही नहीं, इनके पीछे मत भागिए आप I इन गुणों को प्राप्त करने के पीछे मत भागिए, बस उस परम थिर के सम्मुख हो जाइए,.... और फिर जब आपको कृपा मिलेगी, तो ये मन के गुण नहीं मिलेंगे आपको, वो परम गुण मिलेंगे, जो स्वयं परमात्मा के हैं, जो आप में भी रम रहा है वो परमात्मा I


वो परमात्मा हर जगह है I परम विदेही ही परम थिर हो सकता है, जहां देह है, किसी भी तरह की देह हो, समस्त देहैं अथिर होती हैं, हो सकता है, कुछ समय के लिए वो थिरता प्राप्त कर लें, लेकिन वह थिरता एक भ्रम है इलूज़न है, क्योंकि वो थिरता, अमर थिरता नहीं है, वो कुछ समय की थिरता है I


इसीलिए अगर परमथिरता को प्राप्त करना है, तो परम विदेहिता को प्राप्त करना होगा, और परम विदेही, मैं बार-बार कहता आया हूँ, कि परम विदेही होने का मतलब ही यही है, कि समस्त देह और समस्त मनों को गिराना, तभी आप उस परम थिर को प्राप्त कर पाओगे I


समस्त परम आनंदों का भी आनंद है परमथिर, जितने भी आनंद आपने महसूस किए हैं अब तक, वो सब इंद्रिय जनित आनंद हैं, इंद्रियों के ही आनंद हैं I आपको वो परम आनंद, जो परम विदेही आनंद है, वो अनंत आनंद है, वो पूरा भरा हुआ आनंद है, ना वो घटता है, ना बढ़ता है, क्योंकि वो इतना भरा हुआ है, पूरा भरा हुआ, इसलिए उसको निरानंद कहा गया है I


समस्त मन के आनंदो से परे, वो परम सागर है आनंद का I उस परमात्मा में ही ये सारी सृष्टियाँ हैं, उसी परमात्मा में ये सारी सृष्टियां समाई हुई हैं I वो परमात्मा परम सागर है, परम थिर सागर है, अनंत सागर है वो, और इसी सागर में ये सारी अनंत सृष्टियाँ समाई हुई हैं, वो अथाह आनंद का, जो कभी घटता बढ़ता नहीं, कांस्टेंट आनंद का, परम आनंद सागर है, परम सर्वव्यापी सागर है,वो ऐसा सागर है, जो हर जगह पर है, बस हम ही उसको जान नहीं पाए I हमने उस सागर को जाना ही नहीं, जब उस सागर को जान लोगे, तो फिर आपको इस संसारी जीवन में कुछ भी अप्राप्य नहीं रहेगा, समझ लो आपको सब कुछ मिल जाएगा, वही तो है, जो आपको परम संतुष्टि देता है I


अन्यथा आप कुछ भी कर लीजिए, जितनी चाहे साधनाएं कर लीजिए, जितनी चाहे सुमिरन कर लीजिए, आपको संतुष्टि नहीं मिलेगी, परम संतुष्टि नहीं मिलेगी I कभी कभार हो सकता है, आपको संतुष्टि का भ्रम हो जाए, कि हां इस साधना से मुझे संतुष्टि मिल रही है, लेकिन कुछ समय के बाद वो टूट जाएगी, क्योंकि वह अथिर संतुष्टि है, परम थिर संतुष्टि आपको परम परमात्मा, सर्वव्यापी परमात्मा, परम सागर, अनंत सागर जो परमात्मा है, जो परम थिर सागर है, उसी से मिलेगी, वहीं आप को परम शांति, परम संतुष्टि और ऐसा धीरज,... मन का धीरज नहीं, जो कभी घटे बढ़े, ऐसा परम धैर्य मिलेगा आपको, जो कभी कम नहीं होगा I


एक थिर धैर्य, परम थिर धैर्य मिलेगा आपको I परमात्मा के सम्मुख होते ही वो सारा खजाना खुल जाता है, जिस खजाने की आपको अनंत जन्मों से तलाश थी, वही है एक इन सभी खजाने को देने वाला,.. और उसने खजाना ऐसा नहीं है, बंद किया हुआ है,... तुमने ही कभी उस खजाने की तरफ मुंह नहीं किया, तुमने ही कभी उस खजाने की तरफ देखा नहीं, इतना विराट, अनंत, भरा हुआ खजाना है वो, वहां वो सब है, जो आपकी समस्त अतृप्तियों को, समस्त तृष्णाओं को पूरा भर देगा, पूरा तृप्त कर देगा, वही वो परमात्मा है, जो आपको परम संतुष्टि देगा I


परम थिरता में ही परम आकर्षण है, समस्त आकर्षणों का ऐसा आकर्षण है, जो समस्त प्रकृतियों को आपके अनुकूलित होने पर मजबूर करता है, समस्त प्रकृतियाँ, वो तो परम अक़र्ता है परमात्मा, लेकिन इस परम अक़र्ता परमात्मा में स्वतः ऐसा गुण है, कि जो भी जीव इसके सम्मुख होता है, परम सारी अनंत सृष्टियाँ, इसी लोक की सृष्टि नहीं, अनंत सृष्टियाँ उसके अनुकूलित होने के लिए बाध्य हो जाती हैं, और ये समस्त प्रकृतियों का नियम है I


ये समस्त प्रकृतियों का एक ऐसा विधान है, जो ये प्रकृतियाँ भी नहीं जान पाईं, क्योंकि समस्त प्रकृतियों का आधार सत्य है, और सत्य के सम्मुख जो हो जाए, तो सारी प्रकृतियाँ, उसका जो आधार है, उस आधार के समर्पित जीव को अनुकूलन देती है, इसलिए ही परम थिर के सामने परम सुरक्षा मिलती है, वही है आपको परम सुरक्षित करने वाला, परम संतुष्ट करने वाला, सारा आपके लिए सारा खजाना खोलने वाला I


इसीलिए आपको किसी से मांगने की जरूरत नहीं पड़ती, जो मांग रहा है, दान दक्षिणा ले रहा है, समझिए उस पर कृपा नहीं है, उसको मिल नहीं रहा परमात्मा से, इसलिए आपके सामने हाथ फैलाया जा रहा है, अगर परमात्मा कृपा होती और जो आपको फिर कृपा नहीं दे पाया, खुद कृपा ले नहीं पाया तो, कैसे आपको कृपा दे पाएगा I जीव का गुरु बनना, गुरु शब्द ही अहंकार है, गुरु का मतलब ही समझिए अहंकार, जैसे कोई गुरु बन गया, तो समझ लो वो अहंकारी बन गया, क्योंकि परम गुरु तो परम परमात्मा ही है I


सबका एक ही गुरु है, और सदियों से अनंत युगों से वही गुरु रहा है, ये गुरु तो कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते, यह गुरु तो अवसरवादी हैं, इनके पीछे कोई ना कोई उद्देश्य होता है, चाहे इस लोक के गुरु हों, चाहे परलोक के गुरु हों I किसी भी लोक से कोई गुरु आता है, तो पीछे कोई मकसद होता है, लेकिन परम गुरु जो है, सत्य गुरु, परम थिर गुरु, उसका आपसे कोई मकसद नहीं है, जैसे ही आप उसके सम्मुख होंगे, आपको सारा सत्य सनातन ज्ञान मिल जाएगा, फिर आपको किसी के सामने ना ज्ञान के लिए हाथ फैलाना, ना ही किसी अन्य आवश्यकताओं के लिए हाथ फैलाना पड़ेगा, यही उस परमात्मा की समर्थता है, और यही उस परमात्मा की महिमा है I


कुछ लोग कहते हैं, कि आप परमात्मा के नाम पर प्रचार क्यों कर रहे हैं, तो हम परमात्मा के नाम पर प्रचार नहीं करते, हमको पता है कि परमात्मा का प्रचार नहीं किया जा सकता, परमात्मा स्वयं समर्थ है, जिस तक उसका ज्ञान पहुंचना है, चाहे वो कहीं भी हो, किसी भी सृष्टि में हो, वहां पहुंचाता है वो परमात्मा I हम जीवों की, किसी की भी कोई क्षमता नहीं है, कि हम प्रचार करें, हम तो केवल उसकी महिमा कर रही हैं, उसकी महिमा का जो आनंद है, वह बिरलों को मिला करता है, केवल महिमा कर रहे हैं I प्रचार करना भी एक अभिमान है, हम कोई प्रचार नहीं कर रहे हैं I प्रचार करना ही परमात्मा की समर्थता पर प्रश्नचिन्ह लगाना है, कि आप को उसके प्रचार की आवश्यकता पड़ी, इसका मतलब वो असमर्थ है अपना प्रचार करने में I


जो परमात्मा सर्वव्यापी है, परम थिर है, ऐसा कोई कोना नहीं है, ऐसा कोई कण नहीं, ऐसी कोई जगह नहीं, चाहे शून्य हो या तत्व हों, सब में वो रमा हुआ है, उसको किसी भी प्रकार के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती I जब भी कोई भी उसकी कृपा के सम्मुख होता है, उसकी समर्थता ऐसी है, कि उसके रोम-रोम में वो सत्य ज्ञान प्रकट कर देता है, वो आपसे किसी भी तरह से कोई गुलामी नहीं कर पाता, वह आपके सारे गुलामी बंधन तोड़ देता है, दासातन वाले बंधन तोड़ देता है, आपको स्वयं सम्राट बना देता है, आपकी समस्त चिंताओं को तोड़ देता है, समस्त परवाहों को खत्म कर देता है, वो ऐसा परम थिर परमात्मा है I


तो आज का जो हमारा विषय था, कि वो सर्वव्यापी परमात्मा परम थिर है, वो समस्त थिर और अथिर से परे है, उसकी थिरता कभी खंड नहीं होती, इसीलिए वो मुक्त और परम शांत है, इसीलिए वो परम अक़र्ता है, परम अक़र्ता में ही सर्व मुक्त गुण होते हैं, बाकी जो थिर अथिर अक़र्ता या कर्ता है, वह सारे बंधनात्मक हैं, वो बंधन में ही हैं, इसलिए ना हमको कहीं समाना है, ना ही कहीं जाना है, जहां हो वहां ठहर कर पूर्ण मरण की तैयारी करो, पूर्ण मरण, समस्त मनों को गिराने की, और समस्त मन उसकी कृपा के सम्मुख होकर ही गिरेंगे, अन्यथा मरते तो बहुत जन्मों से आए हो आप I


अब आपको पूर्ण मरण, पूर्ण मरण की तैयारी करनी होगी, तभी जाकर आप उस परम थिर को प्राप्त कर पाओगे I हमको केवल यह देह नहीं छोड़नी है, अगर देह से कुछ निकला, तो समझिए कि फिर जन्म होगा आपका, अब ऐसा मरण हो, कि कुछ निकले ही नहीं देह से, परम चैतन्य भी शांत होकर, ठहर कर शरीर के सारे तारतम्य टूट जाए उसके, बस फिर परम थिर ही बचेगा, जो थिर सर्वदा से थिर था I धन्यवाद I


87 views0 comments

नमस्कार दोस्तों, आज हमारा विषय है डर का बीज डर का पेड़ खड़ा करता है, ना की निर्भयता का, डर का बीज डर का पेड़ खड़ा करता है ना की निडरता का I


अध्यात्म जगत में हमको डराया जाता है, हमको भय दिखाया जाता है, कि

“””भय बिन प्रीत ना होत गुसाईं”””

क्या भय से प्रीत बनती है ?? अगर भय से प्रीत बनती है तो वह टेंपरेरी होगी, वह परमानेंट प्रीत नहीं हो सकती I किस तरह का भय आपको प्रीत की तरफ ले जाता है ? ? भक्षक का भय रक्षक की तरफ ले जाता है, लेकिन जरा पीछे मुड़ कर तो देखो, कहीं वो भक्षक रक्षक का ही तो प्रतिनिधि नहीं है I


एक बार वापस से अपने ज्ञान को टटोल कर देखिए, आपको पता चलेगा, जो आपकी रक्षा के लिए खड़ा है, डंडा लेकर कह रहा है कि मैं रक्षा करूंगा, कहीं उसी ने तो भक्षक नहीं भेजा है, जो आपकी रक्षा की हानि कर रहा है I खेल को समझना होगा I


भय बिन प्रीत नहीं होती, ऐसा क्यों कहा गया, क्यों आपको भय दिया जा रहा है, और फिर भय दिखाकर प्रीत दिखाई जा रही है I क्या भय के बीज से प्रीत बढ़ेगी ?? प्रीत नहीं, वो तुम डर रहे हो इसलिए चिपक रहे हो, तुमको इतना डरा दिया गया है, कि बस तुमको दिख रहा है कि ये झूठा रक्षक हमारी रक्षा कर लेगा, भय भी झूठा था तो रक्षक भी झूठा है, क्योंकि जो झूठा रक्षक है, उसको पता है कि यह सारे भय मैं झूठे दिखा रहा हूं, तो सारे भय जब झूठे हैं, तो मुझे रक्षा करनी ही नहीं, तो मैं रक्षक भी झूठा हूं, बस ये जरूर हो गया, कि जीव भय के मारे भागता हुआ, क्योंकि भय दिखा दो, भय का व्यापार, भय दिखा दो, तो भय से भागता हुआ जो भय दिखा रहा है उसके चिपक जाएगा जीव, कि इसने भय दिखाया है तो निश्चित ही यही भय से बचाने वाला होगा, तो इस तरह की प्रीत की बारे में बात की जा रही है I


निर्भयता की शुरुआत निर्भयता से ही होगी I निर्भयता का बीज ही निर्भयता का पेड़ खड़ा करेगा, और भय का बीज भय का पेड़ खड़ा करेगा I डर का बीज डर का पेड़ खड़ा करेगा I आप डर के बीज को पानी दे रहे हो, पोषण कर रहे हो, डर बढ़ा रहे हो अपने हृदय में, और सोच रहे हो निडर हो जाओगे, सोच रहे हो निर्भय हो जाओगे, यह संभव ही नहीं I


ये डर का बीज, आप कितने जन्मों तक डर के बीज को लेकर चलते चले जाओगे आपको अंदाजा भी नहीं है I एक बीज पता नहीं कितने जन्मों की सौगात खड़ी कर देता है I निर्भयता सत्य से प्रेरित होती है, सत्य से मिलती है और निर्भयता का बीज निर्भय ही होता है I


शुरुआत ही निर्भयता से होती है, सारे पाखंडों का, सारे भयों का नाश होकर निर्भयता का जो पहला बीज जो डलता है, पहला बीज जो रोपित होता है, वही बीज आगे चलकर आपको निर्भयता का पेड़ खड़ा कर देता है, तब जाकर आप सत्यमुखी हो पाते हो, तब जाकर आप अविचलित हो पाते हो, तब जाकर आप अमर थिरता के ठहराव में ठहर पाते हो, ये तभी हो पाता है, लेकिन जब तक डरोगे तब तक डर का ही व्यापार होता रहेगा आपके हृदय मंडल में, आपके अंतः करण में, आपकी चेतना में, डरते रहोगे आप, और डर डर कर, डर डर कर सदेव गलत रक्षक को ही चुनोगे I


समर्थ रक्षक सत्य जो है, वो परम रक्षक है, वो ऐसा आपके हृदय में रक्षा का परम विश्वास डालता है, आपके हृदय को परी पूरित कर देता है रक्षा के भाव से, जब सत्य के सम्मुख होते हो, तो रक्षा का ऐसा अमृत आपके हृदय में उड़ेल दिया जाता है, आपके मस्तिष्क और आप के भावों में ऐसा डाल दिया जाता है, कि आप में निर्भयता सदा के लिए रम जाती है I सारे भय नष्ट हो जाते हैं, तहस-नहस हो जाते हैं I तब जो प्रीत बनती है, वो अमरप्रीत होती है, वो थी ही, सदैव थी ही अमरप्रीत और वह सत्य मुखी होने से सारे भयों के खंडन होने पर वह प्रीत उपलब्ध हो जाती है, लेकिन जो भय से प्रीत बनती है, वो एक नाटक है, वो अपने साथ एक गद्दारी है स्वयं के साथ I


किससे रक्षा मांग रहे हो तुम, क्या परमात्मा ने शाश्वतता से तुमको रक्षा नहीं दी ??? तुम परमात्मा की साधना कर रहे हो, परमात्मा की भक्ति कर रहे हो, और सोच रहे हो कि परमात्मा ने तुमको शाश्वतता से रक्षा दी ही नहीं, अरे उसने तो तुमको सबको परम सुरक्षित किया हुआ है, परम सुरक्षित, लेकिन हम उस परम सुरक्षा से विमुख होकर झूठी सुरक्षाओं की तरफ भाग रहे हैं, जो खुद सुरक्षित नहीं हैं, जो खुद आवागमन में हैं, खुद 84 में हैं I


कई लोगों के मुंह से तो मैंने ऐसा सुना है, वो कहते हैं कि गुरु कि आप 100 वर्ष भक्ति कर लीजिए, और 1 दिन भी अगर आपने किसी अन्य की भक्ति कर ली, तो 100 वर्ष के गुरु की भक्ति नष्ट होकर आपको 84 भुगतनी पड़ेगी I अब यहां पर किस को दोषी ठहराया जाए ?? अगर मुझसे पूछा जाए कि दोषी किसको ठहराया जाए, तो मैं उस गुरु को दोषी ठहराउंगा, जिसकी उस शिष्य ने 100 वर्ष भक्ति की, और एक दिन उसको दूसरी भक्ति करने का मौका मिला I अरे तुम्हारी भक्ति में अगर इतना सामर्थ्य होता, तो 1 दिन दूसरी उपासना करने की उसको आवश्यकता नहीं पड़ती I तुम्हारी भक्ति में, तुम्हारी साधना में ऐसा सामर्थ्य है ही नहीं, और सामर्थ्य होता तो यह बात आपको बोलने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती, यह पैमाना खड़ा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती आपको, कि सौ वर्ष गुरु की पूजा करके एक दिन जो भी अन्य उपासना करेगा वह 84 में जाएगा, काल उसको खाएगा I


यह सब झूठी बातें हैं, झूठ कह कह कर आपको डरा दिया गया है, कि कोई किसी पंथ से जुड़ा है, वहां से विमुख हो गया, उसको ज्ञान सही नहीं लगा, अब वो पंथ वाले क्या कहते हैं, कि अगर उस व्यक्ति से आप मिल गए तो 84 में जाओगे, ऐसा डर खड़ा कर देते हैं, क्यों आपका ज्ञान इतना कमजोर है, आपका सत्य इतना कमजोर है, कि आपके पंथ से विमुख होकर कोई अन्य व्यक्ति कहीं चला जाता है, अन्य मार्ग को अपना लेता है, और उससे कोई बात कर लेगा, तो 84 में चला जाएगा, ये ऐसे डर, ये झूठे डर है, ऐसे डरों से डरा डरा कर आपको सदैव के लिए पंगु बना दिया I


एक डर हो तो बताएं, कि जो इस साधना को नहीं करेगा, वो 84 में जाएगा, जो ऐसा करेगा उसके साथ ऐसा होगा, जो ऐसा करेगा उसके साथ ऐसा होगा, और ना कोई प्रमाण, ना कोई सार्थकता, ना कोई सत्यापित, ना पिछले इतिहास से उसकी कोई गवाही मिल रही है, फिर भी आपको भर भर कर डराया जाता है, इतना डरा दिया जाता है, कि आपको उस डर की अंधकार में वह जो बताने वाला है, जो डर बताने वाला है, वही एक चिंगारी दिखती है प्रकाश की, और उसी के जाकर आप चिपक जाते हो I


जब तक ऐसे डरों में धूमिल रहोगे, तब तक निर्भयता का बीज आप में नहीं डलने वाला, निर्भय आप हो ही नहीं पाओगे, कितनी ही कोशिशें कर लो आप, निर्भयता की तरह आप बढ़ नहीं पाओगे, आप उसी मंडली में चिपके रहोगे I


एक तो भेड़ होती है, जो आगे की भेड़ों का अनुसरण करती है, तो भेड़ तो फिर भी उस सारी भेड़ों का अनुसरण करने से चूक सकती है, वो रस्ता भटक सकती है, और भेड़ों के रस्ते में नहीं चल सकती ऐसा भी हो सकता है, लेकिन जो इंसान भेड़ बन जाता है, वह भेड़ को भी शर्मिंदा कर देता है, लकीर का फकीर इतना प्रगाढ़ हो जाता है इंसान, ऐसा भेड़ रूपी गुण अपने आप में डाल लेता है I


संस्कारों की माला इसकी इतनी जबरदस्त है, कि घिसते घिसते चले जाओगे, तो भी संस्कार छूटने वाले नहीं होते इंसानी जीव के, और भय से ही भयभीत होकर पूरा जीवन निकाल देता है, और वही संस्कार फिर आगे उसको proceed हो जाते हैं, वही संस्कार आगे उसको मिल जाते हैं, और भय में भयभीत होता चला जाता है I


कई लोग कहते हैं, कि आज हमारे पास बहुत धन है, हमको क्या जरूरत किसी चीज की, हमको क्या जरूरत किसी अन्य सत्य की तरफ बढ़ने की, अब सबसे बड़ी समस्या यहां पर ये है, कि जीव को पिछले प्रभाव की वजह से थोड़ी सी सहूलियत मिल जाती है जीवन में, सुरक्षा का भाव उत्पन्न हो जाता है जीवन में, तो वो ये समझने लगता है, कि मुझे तो आगे तक सुरक्षा मिलेगी, बल्कि ये समझिए आपको वह एक श्राप है, इस जीवन में आपको अगर 50 साल की सुरक्षा मिल गई, तो ये श्राप समझिए आप, यह सहूलियत मिल गई तो श्राप समझिए, क्योंकि प्रकृति तो असुरक्षा में चल रही है I


सारे जानवरों को देखो, जीवों को देखो, इंसान को छोड़कर I इंसान को भी देखो, 95% इंसानों को देखो, सब असुरक्षा में जी रहे हैं I केवल 3 से 5% लोग जो सुरक्षा में जी रहे हैं, वो ये समझ रहे हैं कि इनको यह सुरक्षा शाश्वतता से मिली है, आज आपके पास धन है, थोड़ी सी सिक्योरिटी है, ऐसा मत समझिए यह सदा के लिए रहेगी, और इसके तो जीते जागते एग्जांपल आज हमारे सामने मौजूद हैं, हम आंखों से अन्य समस्त जीवों को देख सकते हैं, इसकी प्रमाणिकता है, कि सुरक्षा में आप सदैव नहीं रहोगे I इस बात को प्रमाणित करने की आवश्यकता है भी नहीं I


अगर परमात्मा के सम्मुख नहीं है आप, तो असुरक्षा को स्वीकार करना सीखें, क्योंकि आगे के जन्मों में आपको और असुरक्षा ही मिलेगी, असुरक्षा ही संसार का नियम है, हर जीव आज असुरक्षित है, जिसको झूठा भान है, झूठा ऐसा ऐतबार है, कि वह सुरक्षित है, वह गलत है I सब के सब संसार में असुरक्षित हैं, और असुरक्षितता को स्वीकार करना ही फायदेमंदी है, क्योंकि जब असुरक्षा का स्वीकार्य आपको होगा, तो आगे के जन्मों में आपको वह असुरक्षा में भी सहूलियत मिलेगी, यही शाश्वतता है, और जैसे ही आप सत्य से जुड़ते हो, तो सारी असुरक्षाऐँ आपकी सुरक्षा में बदलना शुरू हो जाती हैं, और अंत में आपका पूर्ण मिटाव होकर परम सुरक्षित हो जाते हो I


तो यह जो पूरा नियम चल रहा है असुरक्षा का, यह जो प्रवाह है असुरक्षा का, वह प्रवाह

शाश्वत है, वह प्रवाह आदि अनादि है, वह प्रवाह ब्रह्म पुरुषों से लेकर, देवी देवताओं से लेकर, इंसानों से लेकर, समस्त जीव अनंत सृष्टियों में बह रहा है I कोई जीव सुरक्षित नहीं है I केवल वह जीव सुरक्षित है, और वह जीव आगे सुरक्षित कर लिया जाएगा अमरता से, जो सत्य को सम्मुख है, मतलब जितनी असुरक्षा अनंत सृष्टियों में फैली हुई है बहाव के रूप में, उतनी ही पूर्ण सुरक्षा सत्य आपको उपलब्ध करवाता है, यदि आप सत्य मुखी हो जाते हो I


परमात्मा की महिमा अपरंपार है, अनंत है, लेकिन उसके शाश्वत मार्ग से जुड़ना होगा आपको, झूठे मार्गों से नहीं, अन्यथा लोग डराकर धमकाकर आपके हृदय में डर के बीज बो बो कर आपको डरपोक और भीरू बना देंगे, पंगु बना देंगे, आप उठ खड़े होने लायक नहीं बचोगे I


तो भय से प्रीत कभी नहीं होती, प्रीत तो निर्भयता का बीज डलने पर ही होगी I


तो निर्भयता का बीज बोऐँ, सत्य के सम्मुख होकर निर्भयता का बीज बोया जाता है, सारे भय, सारे डर खंड हो जाते हैं, और अनंत सत्य की ओर आप बढ़ते हो, और अंत में आपका पूर्ण मिटाव होकर केवल सत्य ही बचता है I धन्यवाद I


35 views0 comments

ज्ञान ज्ञान और अनुभव किसे कहते हैं और अगर हमारा परमात्मा पूर्ण रुप से सर्व व्यापी है हर जगह पूर्ण रूप से भरा हुआ है, ठहरा हुआ है तो फिर हम उस से विमुख कैसे ? जब कोई भी सर्वव्यापी परमात्मा की साधना करता है,.. उस अमर परमात्मा की साधना करता है,.. तो अध्यात्म जगत से संबंधित अनंत ज्ञान और अनंत अज्ञान और अनंत अनुभव, परमात्मा कृपा से परमात्म विवेक प्रकट कर के मन में प्रकाशित कर दिए जाते हैं I ऐसा कोई ज्ञान नहीं बचता , ऐसा कोई अनुभव नहीं बचता जो आपकी झोली में नहीं डाला जाता , लेकिन किस तरह से डाल दिया जाता है वह एक सुसुप्त अवस्था में डाल दिया जाता है आपके मन के अंदर I

परमात्मा की पूर्ण कृपा को समझना होगा I परमात्मा की कृपा बहुत अद्भुत कृपा है , वह सारे ज्ञान से आपके मन को परेशान नहीं करता सारे अनुभवों से आपके मन को परेशान नहीं करता,...लेकिन सारे अनुभव और सारे ज्ञान आपके मन के अंदर डाल दिए जाते हैं परमात्मा कृपा से I अब उसका फायदा क्या होता है ?...उसका फायदा यह होता है कि जब भी कोई ज्ञान की फांस में फंसाने की कोशिश करेगा आपको, अनुभव की फांस में फंसाने की कोशिश करेगा,.. तो जैसे ही कोई अनुभव की बात करता है,.. किसी भी तरह के अनुभव की बात करे,. वह अनुभव आपके अंदर परिलक्षित हो जाता है I वह अनुभव आपको ज्यों का त्यों दिखाई देने लगता है उस अनुभव से आप अनुभूत हो जाते हो तुरंत,.. और फिर उस अनुभव को आप रिजेक्ट कर देते हो और इसका प्रमाण आप खुद स्वयं हो, जो भी परमात्म साधना कर रहा है जो परिवर्तन सत्ता को समझ चुका है और एक शाश्वत अमर अविनाशी ठहरी हुई सत्ता परमात्म सत्ता को जान चुका है उसके सामने आप किसी भी अनुभव को लेकर आओगे जो परमात्मिक अनुभव नहीं है तो तुरंत रिजेक्ट कर दोगे आप I

आपको परख हो चुकी है,.उस अनुभव की,.. अब आपको आवश्यकता रही नहीं , जैसे ही कोई अनुभव आपके सामने लाने की कोशिश की जाती है कि इस तरह का प्रकाश दिखा, इस तरह की धुन सुनाई दी ,ऐसा मुझे सुगंध आई, मेरे रोम रोम में इस तरह से अनुभूतियां हुई I हमारे शरीर के अंदर जितनी भी इंद्रियां हैं उन इंद्रियों से जनित अनुभव निश्चित होते हैं I जब आप कोई भी साधना करते हो, लेकिन परमात्मा साधना जब आप करते हो तब आप सारे अनुभवों से पार जा रहे होते हो,.. अनुभवों में नहीं फस रहे होते हो, लेकिन जब भी अनुभवों की बात की जाती है तो जितने भी अनंत अनुभव हो सकते हैं उन सब अनंत अनुभवों पर पैर रखवा कर आपको अनुभवों से पार करवा दिया जाता है परमात्मा कृपा से I

चाहे ज्ञान जनित अनुभव हो या अनुभव जनित ज्ञान हो , कुछ ज्ञान अनुभव जनित होते हैं जैसे अनुभव होता है तो फिर उस अनुभव से हमें ज्ञान होता है और कुछ ज्ञान से हमें अनुभव होता है , तो चाहे ज्ञान जनित अनुभव हो या अनुभव जनित ज्ञान हो , समस्त अनुभव जनित ज्ञान जनों को जितने भी अनुभव हो सकते हैं या जितने भी ज्ञान हो सकते हैं, सबके सिर पर पैर रखवाकर परमात्मा पार करवा देता है I अनुभव और ज्ञान दोनों के साथ “मैं “ जुड़ा ही है और जहां “मैं “जुड़ा है वहां मुक्ति हो ही नहीं सकती I अनुभव किसको ? ज्ञान किसको ? ज्ञान शून्य अवस्था, अनुभव शून्य अवस्था कब प्रकट होती है ?

उस ज्ञान शून्य और अनुभव शून्य अवस्था के भी पार जाना है आपको I क्योंकि ज्ञान होना, ज्ञान से भरा हुआ होना और ज्ञान से खाली होना दोनों ही मन की अवस्थाएं हैं आप को तो इन दोनों के पार जाना है I अनुभव से भरे हुए होना और अनुभव से खाली हो जाना दोनों ही मन की अवस्था है , तो जहां मन है वहां मुक्ति कैसे ??

मन बुद्धि चित्त अहंकार , लोग कहते हैं कि मन से बड़ा बुद्धि होती है चित्त अहंकार ऐसी बातें करते हैं तो यह सब मन के ही भाव हैं आप इन को डिवाइड मत करिए , फिर आप इन सब के अलग-अलग गुण बता देते हो तो इस तरह के अनंत ज्ञानों में जो फाँस फ़ंसाए बैठे हैं लोग, अनंत अनुभवों में जो फांस फसाए बैठे हैं, जैसे ही परमात्मा कृपा पात्र व्यक्ति के सामने कोई ज्ञान की बात की जाती है या अनुभव की बात की जाती है तो वह तुरंत पकड़ लेता है कि यह अनुभव और यह ज्ञान परमात्त्मिक नहीं है वह तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं, यह गुण आप खुद आप में भी देख सकते हो जिसने इस सर्वव्यापी परमात्मा की कृपा को अपनाया है , साधना कर रहे हैं , वह निश्चित ही इस चीज को देख सकते हैं कि वह ज्ञान और अनुभवों के पार जा रहे हैं उनको ज्ञान से कोई लेना नहीं है वो ज्ञान को एक क्षण में रिजेक्ट कर देते हैं जैसे ही कोई ज्ञान पहुंचता है उनके सामने वो तुरंत रिजेक्ट कर देते हैं कि यह ज्ञान प्रमाणिक , परमात्मिक नहीं है कोई कहेगा आपको, कि मुझे ऐसा अनुभव हुआ, मुझे प्रकाश दिखाई दिया, मुझे कोई व्यक्ति दिखायी दिया , मुझे किसी ने दर्शन दिए , मुझे धुन सुनाई दी, में उस लोक में पहुँच गया , मुझे ब्रह्मांड दिखायी दिया या कोई देवता दिखाई दिया I जैसे ही अनुभवों की बातें आपके सामने की जाएगीं , जो परमात्मा ने कृपा से ससुप्त अनुभव , सारे अनुभव आपके अंदर डाल दिए थे कृपा से , वो अनुभव आपके अंदर अपने आप प्रकट हो जाता है , फिर आप समझ जाते हो कि यह काल का , यह परिवर्तनशील सत्ता का अनुभव है, यह मिथ्या है , झूठा है I

परिवर्तनशील सत्ता का कहाँ तक अनुभव जा सकता है उस अनुभव तक की नींव तक परमात्मा ले जाता है I अनुभव माया है , अनुभव के साथ, “मैं”, सदैव जुड़ा ही रहेगा, और जहां “मैं” है , वहाँ आप मुक्ति का कभी सोच भी नही सकते I अनुभवी अहंकारी है , अनुभवी झूठा है , मिथ्या है , अनुभवी सदा मुक्ति से दूर है I

अनुभव और अनुभवी दोनों ही काल के जाल में पूर्ण रूप से भरे पड़े हैं I यह छोटा सा संसार है इस संसार में ही अनंत अनुभव है हर चीज का एक अनुभव होता है I आप गाड़ी चलाओगे उसका अनुभव अलग, कोई भी काम करोगे उसका अनुभव अलग और काम करोड़ों है तो करोड़ों काम के करोड़ों अनुभव , यह तो रहे भौतिक जगत के अनुभव , फिर लोग जिस बात को आध्यात्मिक जगत की कहते हैं असल में वह भी आध्यात्मिक नहीं होता वह भी भौतिक ही होता है I

जब आप शरीर और मन से कोई भी क्रिया कर रहे होते हो वह सब भौतिक ही है , अब उससे संबंधित जब क्रिया को करते करते , करते करते कोई ज्ञान और अनुभव आप में आता है तो वह सब काल के परिवर्तन के समय के दायरे में ही है, और जब तक समय के दायरे में है, परिवर्तन के दायरे में है,.. कोई भी चीज, तब तक बंधन है I समय ही बंधन है, परिवर्तन ही बंधन है और परिवर्तन में भी एक, मिथ्या बंधन और खड़ा कर दिया जाता है, जो ऐसा प्रतीत होता है कि यह मुक्ति है I

जैसे एक देशीय परमात्मा की बातें होती हैं कि वह किसी एक ख़ास देश में रहता है और वहां पर वह कांस्टेंट है शांत है , ठहरा हुआ है , थिर है हमें वहां जाकर रुक जाना है , तो वह भी एक झूठी मुक्ति परिवर्तन के दायरे की मुक्ति है I संसार में अध्यात्म जगत में सबसे पहले आपको नैतिकता में फसाया जाता है I नैतिकता और आध्यात्मिकता , अगर पहले आपके सामने नैतिकता परोसी जा रही हैं तो समझिए आप बहुत ही अच्छी तरीके से झूठी आध्यात्मिकता में फ़ंस जाओगे I

नैतिकता कोई बुरी चीज नहीं होती, लेकिन वह सांसारिक है ,सामाजिक है , इस चीज को हमें जानना होगा I नैतिकता समाज के लिए ठीक है लेकिन अध्यात्म जगत के लिए नैतिकता का कोई उपयोग नहीं है I समाज किस तरह से चले, अच्छा चले बुरा चले, समाज में शांति रहे , उसके लिए नैतिकता ठीक होती है, लेकिन जैसे ही हम आध्यात्मिकता की बात कर रहे कर रहे होते हैं तो कोई भी बड़ा, जिसने अपना अपना बड़ा नाम कमाया है आध्यात्मिक जगत में , उन्होंने पहली शुरुआत नैतिकता से की I नैतिकता की हजार बातें आपके सामने रखी I 5000-10000 बातें आपके सामने रखीं I जब नैतिकता की बातों से आप वशीभूत हुए, hipnotise हुए , तब उन्होंने झूठी आध्यात्मिकता की बातें आपके सामने रखना शुरू की I तब जो वशीकरण था नैतिकता का , उस वशीकरन की वजह से आपने वह झूठी आध्यात्मिक बातें भी मान लीं I यह होता है तरीक़ा मनोवैज्ञानिक आपको किसी भी तरह के मार्ग पर धकेलने का I अब वो मार्ग सही हो या ग़लत हो

जीवन तो छोटा है, केवल नैतिकता की बातों में ही फँसकर अगर हम कोई झूठा मार्ग अपना लें और कोई भी मार्ग अपनाओगे तो छोटे-मोटे अनुभव तो होंगे ही I

अनुभव क्रिया के साथ जुड़ा ही है,... तो कोई भी क्रिया करोगे कुछ भी काम करोगे कुछ भी साधना करोगे तो अनुभव आना ही है I जब अनुभव आएगा आप में , तो निश्चित है आप और सम्मोहन की तरफ़ बढ़ोगे कि हां मुझे ऐसा हुआ फिर मुझे ऐसा हुआ तो सम्मोहन और बढ़ा आपका, और पूरा जीवन उसी सम्मोहन में आप गुजार देते हैं , और इस तरह से अंत में आपको कुछ भी हाथ नहीं लगता, लेकिन बहुत बड़ी कृपा का एक विषय यह है कि जब अनुभवों को भी आप ताक पर रख देते हो, अनुभवों को भी रिजेक्ट कर देते हो तब उदय होता है,. सच्ची आध्यात्मिकता का आपके जीवन में I जब ज्ञान को भी आप साइड में रख देते हो कि यह सब झूठे हैं ,मिथ्या हैं , सांसारिक हैं, परिवर्तनशील सत्ता के हिस्से हैं , तब जाके आपके जीवन में उदय होता है सच्ची आध्यात्मिकता का I और ज्ञान के साथ अज्ञान जुड़ा ही है,. क्योंकि ज्ञान तो पिता है अज्ञान का I अगर अज्ञान नहीं होता तो क्या ज्ञान हो पाता ? असंभव है I अंधकार नहीं होता तो क्या प्रकाश होता ? प्रकाश नहीं होता तो क्या अंधकार होता ? प्रकाश नहीं होता तो अंधकार हो सकता था, लेकिन प्रकाश की वैल्यू तभी है जब अंधकार है I ऐसे ही ज्ञान की महत्ता तभी है जब अज्ञान है, तो ये तो इन्होंने तो पैर ही ऐसी जगह रखा हुआ है , इनका तो आधार ही ऐसा है, जो बिल्कुल बेकार है जैसे ज्ञान का आधार ही अज्ञान है, उसने तो अपने पैर ही वहां पर खड़े किए हैं उस अज्ञान पर, वह कैसे मुक्ति दिलाएगा ?

परमात्मा की जब आप साधना करते हैं तो परमात्मा आपके अंदर अनंत ज्ञान , जो संसार में कभी भी कोई भी फँसाव की वजह आपका बन सकता है, वह ज्ञान और आनंद अनुभव , आप में सुसुप्त अवस्था में रख देता है I इतनी आपकी कैपेसिटी नहीं है कि इतनी ज्यादा मेमोरी आपके अंदर डाल दी जा सके, यह कृपा है परमात्मा की I ये उस समर्थ की कृपा है वह कौन से क्लाउड में वह मेमोरी रखता है I आपके परम चेतन्य के पास भी इतनी मेमोरी नहीं है , लेकिन वह कौन से क्लाउड में मेमोरी रखता है आपकी, वह वो जाने I वह उसकी कृपा है I जैसे ही हम उसके सम्मुख होते हैं, ऐसा घट जाता है फिर जब जैसे ही कोई झूठे फ़साव की बात करता है , जैसे ही कोई अनुभव की बात करता है, तुरंत आपका मन , उस क्लाउड से उस अनुभव की इंफॉर्मेशन को निकालने में कामयाब हो जाता है और तुरंत आत्म विवेक से उस परमात्म विवेक से तुरंत आप डिसीजन ले लेते हो I यह जो निर्णय और यह सुनिश्चित निश्चय की क्षमता है वह अमर थिर से ही संभव है , वह अमर शांत से ही संभव है, वह पूर्ण सर्वव्यापी से ही संभव है, तो हमें यह जानना होगा कि समस्त ज्ञान माया है और समस्त अनुभव भी माया है और इनके पार होने का मतलब ही यही है कि जितना भी बड़ा पहाड़ है अनुभव का और माया का सब पर पैर रखवाता है परमात्मा, ऐसा नहीं है कि तुम अनभिज्ञ रह जाओगे, वरना अगर अनभिज्ञता आ जाएगी आप में इस ज्ञान और अनुभव की, तो कोई भी मूर्ख आपके गले में पट्टा बांध कर आपको कुत्ता बना देगा I

क्योंकि आपने जाना नहीं आप में वो परख आई नहीं I जब परख आएगी नहीं जानोगे नहीं तो पट्टा गले में बंधना निश्चित है , लेकिन परमात्मा की असीम कृपा , अनंत कृपा ऐसी है कि अनंत अनुभव और अनंत ज्ञान, किस तरह से आपको कृपा से प्रकाशित हो जाते हैं आपके अंदर, कि आप ज्ञान से भी और अनुभव से भी पार होकर ‘मैं “ से भी पार हो जाते हो I क्योंकि ज्ञान और अज्ञान जैसे मैंने अभी बताया और अनुभव “मैं “ के साथ जुड़े हैं “मैं “ के साथ , अगर “मैं “नहीं तो ना अनुभव रहेगा न ज्ञान रहेगा , तो जितने भी अनुभवी संसार में है,.. जितने भी ज्ञानी है सब “मैं” हैं “मैं “ I और जब तक “मैं” है तब तक मुक्ति संभव नहीं I यहां पूर्ण मिटना है पूर्ण , अगर थोड़ी सी भी छटाँक रह गई,... थोड़ा सा भी अंश मात्र रह गया, थोड़े से भी बच गए, तो मुक्ति संभव नहीं हैI

नैतिक और आध्यात्मिक की बात आती है तो तो यहां पर एक बात बताना बहुत जरूरी है कि वो जब नैतिकता की बात करते हैं , और अध्यात्म में कूदते हैं तो फ़ंस जाते हैं I कैसे फ़ंस जाते हैं ? ये बात समझने की है,...वह कहते हैं कि हम मूल अवस्था में स्वतंत्र थे फिर वहां से हम , जब हमारी प्रथम अवस्था थी हम स्वतंत्र थे , वहां से हम कर्म बंधन में आए, वहां से हमारे अंदर कुछ गलत भाव आ गए, वहां से हमारे अंदर इच्छा जागृत हुई कुछ भी अन्य बहाने करके फिर कहते हैं हम इस संसार में आ गए , हम नीचे गिर गए, हमारे अंदर विकार आ गए, अब हमको वापस उस मूल अवस्था में जाना है इससे बड़ा अज्ञान कोई हो सकता है ?? यह पूर्ण अज्ञान से भरा हुआ ज्ञान है I इसमें अज्ञान पूरा लबालब है और कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हम तो शुरु से ही अज्ञान अवस्था में थे अब उस परमात्मा से जाकर मिलेंगे उसमें समा जाएंगे I मिटने की कोई बात नहीं करता, क्योंकि अध्यात्म का ज्ञान था ही नहीं , अगर कोई यह कहे कि हम तो शुरु से ही अज्ञान अवस्था में थे तो आप फिर ज्ञान अवस्था में आ ही नहीं सकते क्योंकि आप की प्रथम अवस्था ही अज्ञान अवस्था है जब आपकी प्रथम अवस्था ही अज्ञान से भरी पड़ी है तो फिर ज्ञान अवस्था में कैसे आओगे ?? इसका मतलब फिर उस पर ज्ञान का लेप हो जाएगा, समझिए इस पोईंट को I अगर किसी भी प्रथम अवस्था पर लेप चढ़ जाए तो फिर अमर कैसे हुआ ?? वो तो अमर नहीं हुआ I

तो जितनी भी थियोरियाँ संसार में हैं वह सब में पहले नैतिकता का ज्ञान दिया गया , फिर आध्यात्मिकता का ज्ञान दिया तो लोगों ने उसको सहर्ष स्वीकार कर लिया, और था पूरा अज्ञान ही I और आज जितने भी भी लोग सक्षम हुए हैं परमात्म कृपा से, सारे ज्ञान को और अज्ञान को रिजेक्ट करने की जो क्षमता आई है, अनुभवों को रिजेक्ट करने की जो क्षमता आई है,...वह क्षमता ऐसे ही क्रिएट नहीं होती, वो कृपा है उन लोगों पर I आपने समझिए कि अनुभव के ज्ञान के और अज्ञान के पहाड़ों पर पैर रख दिया है कृपा से, अब पहाड़ पर पैर रख दिया तो पार हो ही जाओगे, तो पार जाने का मतलब है “मैं“ के पार जाना होता है I तो आप उस काबिल बन पा रहे हो और बन पाए हो , बन पाते हो , आपको पता नहीं, पता भी चलने नहीं दिया जाता क्योंकि अहंकार आप में भर जाएगा आप में धीरे धीरे, धीरे धीरे , परमात्मा इतनी जल्दी कार्य कर रहा है क्योंकि एक साधना से आप में अनुभव 5 वर्ष में क्रिएट होते हैं 10 वर्ष में क्रिएट होते हैं कुछ भी अनुभव, और ऐसी अनंत साधनाऐ , अनंत जगत में, अनंत ब्रह्मांडों में अनंत साधनाऐँ हैं, इस परिवर्तनशील जगत की I

ऐसी समस्त साधनाओं के अनंत अनुभवों को परमात्मा एक क्षण में आप में डाल देता है, इससे बड़ी कृपा कोई हो सकती है ?? आप किसी भी ब्रह्मांड में जाइए किसी भी साधना को देखिए, किसी भी अनुभव को सुन लीजिए , आप तुरंत रिजेक्ट कर दोगे कि ये परमात्मिक नहीं है I ये क्षमता अद्भुत से भी परे है , आज आप सामान्य दिख रहे हो लेकिन अब सामान्य नहीं रहे हो, बहुत गजब की कृपा दृष्टि हुई है जिसको कृपा पात भी कह सकते हैं , जैसे शक्तिपात होता है वैसे कृपा होती है आपके ऊपर I ये कोई हँसी खेल मज़ाक़ नहीं है , अनंतों जीवन लग जाते हैं इस कृपा पात को लेने में I वो तुम्हारे साथ दिनों में , कुछ महीनों में, कुछ क्षणों में घट गया I यह रिज़ल्ट अपने आप में अमेज़िंग है , तो परमात्म कृपा से ही यह संभव है कि हम ज्ञान, अज्ञान और अनुभव के पहाड़ को पार कर पाऐँ I

और ऐसा नहीं है कि कोई एक या दो एग्जांपल है ऐसे जो इन ज्ञान अनुभव के पहाड़ को पार कर पाए हैं I आज कम से कम हजार लोग ऐसे जुड़े हुए हैं उनसे भी ज्यादा हो सकते हैं , जिन्होंने ज्ञान और अनुभव के पहाड़ को पार कर लिया लगभग, वो किसी के चंगुल में किसी के फाँस में नहीं फ़ंस सकते I अब उनकी मिटने की पूर्ण तैयारी है , “मैं” के मिटने की पूर्ण तैयारी है I

अब बात करते हैं की जब परमात्मा, पूर्ण सर्वव्यापी है, पूर्ण रूप से भरा हुआ है ठहरा हुआ है अमर थिर है, पूरा भरा हुआ है वह हर जगह हर रोम-रोम में भी भरा हुआ है तो हम कैसे उससे विमुख हैं उससे ?? उससे विमुख होने का सवाल ही पैदा नहीं होता यह प्रश्न है I हम विमुख ऐसे हैं क्योंकि परमात्मा हमारे अंदर भरा तो है , पूर्ण रूप से भरा हुआ है , बाहर भी है लेकिन वह निर्लेप है निर्लिप्त है , वह आकाशातीत है I जब वह निर्लिप्त अवस्था में पूरा भरा हुआ है इसी वजह से हमारा जो मन लिप्त है वह उसको जान नहीं पाता और नहीं जानना ही उससे विमुखता है I हम उसको उसके गुणों को उसकी निर्लिप्तता की वजह से उपलब्ध नहीं हो पाते लेकिन जैसे ही हम उसके सम्मुख होते हैं उसके गुणों से सम्मुख होते हैं जब कोई बताने वाला मिलता है I

दो तरीके से परमात्मा कृपा होती है I

पहली,.. कई जन्मों से आपको थोड़ी थोड़ी कृपा मिलती जाए थोड़ी कृपा मिलती जाए थोड़ी प्यास बुझती जाए थोड़ी कृपा मिलती जाए ऐसे कई हजार लाख करोड़ जन्म में आपकी मुक्ति हो जाती है और दूसरी,.. असीम कृपा हो कोई बताने वाला हो जाए, मिल जाए आपको , तो इसी जन्म में , आप उसके गुण से जुड़ जाते हो और पूर्ण कृपा के अधिकारी बन जाते हो I दोनों ही कृपा के हिस्से हैं लेकिन जब आपको कोई बताने वाला मिलता है मार्गदर्शन मिलता है तो वह काम बहुत फास्ट हो जाता है क्योंकि परमात्मा तो अकर्ता है I आप जैसे ही उसके सम्मुख होंगे उसके, आप को शांत कर देगा , तृप्त कर देगा I आपको ज्ञान और अनुभव के पहाड़ पर पैर रखवा कर पार कर देगा I ये परमात्मा का गुण है लेकिन वह गुण कब है ? जब आप सम्मुख हो जाओगे अन्यथा वह परमात्मा किसी के भी इंटरफेयर नहीं करता I जो उसके गुणों से जुड़ जाएगा वो गुणों से लाभान्वित हो जाएगा I

तो जब बताने वाला मार्गदर्शक मिलता है तो उसका फायदा आपको यह होता है कि आप तुरंत उसके गुणों से जुड़ जाते हैं और तुरंत जुड़ते हो तो लाभ तुरंत मिलना शुरू हो जाता है अन्यथा परमात्मा के गुणों से जन्म दर जन्म , किसी जन्म में थोड़े जुड़े , थोड़े और जुड़े , ऐसे हजार लाख करोड़ जन्म लग जाते हैं और इस तरह से मुक्ति होती है I इस तरह से मार्गदर्शन का महत्व होता है I आपको जरूरी है कि आप सुन लें , समझ लें और ना समझ में आए तो रिजेक्ट कर दे I आपको हक है ,..आपको पूर्ण अधिकार है, फ्रीडम है, यह शाश्वत फ्रीडम है, ऐसा नहीं कोई दे रहा है आपको I यह शाश्वत फ्रीडम है आपको कि आप किसी के ज्ञान को अपनाएं या ना अपनाएं I किसी मार्गदर्शन को अपनाऐँ या ना अपनाऐँ,..... ये शाश्वत फ्रीडम है I चिंता का तो कभी विषय रहा ही नहीं , लेकिन अगर कोई अपॉर्चुनिटी आ रही है ,..तो उसको एक बार देख लेना चाहिए, सुन लेना चाहिऐ I इस संसार में जब हम थोड़ा सा जीवन जीते हैं उसमें ही कोई OPPORTUNITY (अवसर ) आकर चली जाती है तो कितना नुकसान होता है, लेकिन यह OPPORTUNITY तो अनंत जन्मों की है I अनंत जन्मों के टाइम पिरीयड में ऐसी OPPORTUNITY मिला करती है I

तो दूसरा हमारा विषय है कि परमात्मा पूर्ण रूप से भरा होने के बावजूद भी हम उससे विमुख इसलिए हैं क्योंकि उसके गुण ही निर्लिप्त हैं आकाशातीत हैं , उसके सारे गुण मन से विपरीत है , उसके सारे गुण मन से परे हैं I इस संसार से परे हैं सारे गुण I तो वो सारे में भरा हुआ होने की वजह से भी हमको वह विमुख ही लगता है I लेकिन जैसे ही हम कृपा से जुड़ते हैं उसके गुणों से जुड़ते हैं तो मन मिटना शुरू होता है और उसके गुण भरना शुरू हो जाते हैं इस तरह से वह निर्लिप्तता , उसकी निर्लिप्तता, उसकी आकाशातीतता , हमारे अंदर असर करने लगती है I हमको मुक्त करने लगती है, वो थी, बस जैसे ही हम सम्मुख हुए , उसके गुणों की तीव्रता , मिठास , उसका अमृत , उसकी शांति हमको मिलना शुरू हो जाती है और जब मिलना शुरू होती है तो “मैं“ मिटना शुरू होता है क्योंकि मन के पास न तो शांति है, न अमृत है, न ठहराव है तो ये सब मिलेंगे उसकी कृपा से I

इसलिए हम सब उससे विमुख हैं I उसके अमर गुणों की वजह से I यह मृत तत्व जो मन के हैं परम चैतन्य तक , इसमें कोई अमरता नहीं है तो जब ऐसे गुण उस अमर से जुड़ते हैं तो निश्चित ही ये मृत गुण जो मन के हैं वह मिट जाते हैं, और इन गुणों का मिटना ही मन का मिटना है I जीते जी आप परमात्मा के पूर्ण सम्मुख हो जाते हैं , आपका शरीर का रोम- रोम, अणु - परमाणु उस अमृत महासागर के पूर्ण सम्मुख हो जाता है उस अमृतसागर में, उस ठहरे हुए अमृत सागर में पूर्ण ठहर जाता है, और जब उस अमृत सागर में पूर्ण ठहर जाता है तब परमात्मा आप के सारे कर्मों को अपनी तरफ से संचालित करता है अब जैसे कि मैं कह रहा हूं कि करता है तो कर्तापन आ गया,... लेकिन वह तो अकर्ता है ये उसका गुण है I जैसे ही आप उसके सम्मुख होते हो तो जैसे पानी का गुण है शीतल करना ऐसे ही उसका गुण है कि सम्मुख होते ही आपके समस्त कर्मों को सुनियोजित कर देता है, संतुलित कर देता है, सहज कर देता है I प्रकृति भी इसमें पूर्ण सहयोग करती है कोई एक ही प्रकृति नहीं सहयोग करती, अनंत प्रक्रतियाँ जो भी परमात्मा की सुध में होता है जो भी जीव , उसको अनंत प्रक्रतियां परम सहजता देने में बाध्य हो जाती है I यह परमात्मा के आधार का गुण है और परमात्मा के आधार पर जितनी भी सृष्टियाँ हैं जितनी भी प्रकृतियां हैं वह नहीं जानती , वो जानती भी नहीं है कि वो किसको सहयोग करेगी किसको नहीं लेकिन बहाव उस दिशा में बहने ही लगता है यह नियम है I

यही तो समझना है कि प्रकृतियाँ जानती भी नहीं है कि वह सहयोग दे रही हैं लेकिन बाध्य हैं I अपने आप सहयोग हो जाता है प्रकृतियों का भी, उस जीव के प्रति , जो जीव परमात्मा के पूर्ण रूप से समर्पित है , उसके ठहराव में ठहरा हुआ है, उसके जो सम्मुख है I तो देखिए कितनी अद्भुत बातें हैं , और हम कहां उलझे हुए थे , किन बातों में हम उलझे हुए थे , कितनी सरल बातें हैं , जैसे ही आप ठहराव में ठहरते हो, तो मन का तो कोई गुण आप पर लागू ही नहीं होता जैसे की कोई मुझसे पूछता है कि आत्म साधक हिंसक होता है या अहिंसक ? तब मैंने उसको कहा, ना तो वह हिंसक होता है न ही अहिंसक होता है I वह हिंसा भी नहीं करता और अहिंसा से भी उसका कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह तो समर्पित हो चुका, वह तो ठहराव में ठहर चुका , उसको क्या मतलब कहां संसार में हिंसा है कहां संसार में अहिंसा है, प्रकृति उसको हिंसा और अहिंसा के पार कर देती है I वह इन दोनों गुणों से मुक्त हो जाता है क्योंकि ये दोनों ही गुण मन के हैं , मन ही हिंसक बनता है और मन ही अहिंसक बनता है I आप ACTIVELY (सक्रिय रूप से ) कभी भी हिंसक नहीं बनोगे और कभी भी अहिंसक नहीं बनोगे , जैसे कि कोई युद्ध हुआ उसमें करोड़ों लोगों को मार रहे हो आप तो एक्टिवली हिंसक बन गए उसमें , ऐसा आत्मसाधक कभी भी हिंसक नहीं बनता और बिल्कुल ही अहिंसक बन जाना , पैर भी उठा उठा कर चलना भी आत्मसाधक नहीं करता है, वह तो बहाव में बह रहा है प्रकृति के, तो वह सक्रिय रुप से न तो हिंसक होता और सक्रिय रूप से न ही अहिंसक होता , वह तो परमात्मा के ठहराव में ठहरा हुआ है और कंप्लीट SYNCHRONISED है परमात्मा से , परमात्मा से पूरी तरह से संचालित है , उस पर कोई भी कर्म आरोपित नहीं होते , क्योंकि मन के समस्त कर्तापन और अकर्तापन से वह पार है I वह ज्ञान को ज्ञान की तरह देखता है अज्ञान को अज्ञान की तरह देखता है , अनुभव को अनुभव की तरह देखता है I न उसे अनुभव से मतलब है न ज्ञान से मतलब है ना अज्ञान से मतलब, न हिंसा से न अहिंसा से , न किसी चीज को करने से , न किसी चीज़ को नहीं करने से, इन सब चीजों से वह सदैव मुक्त हो जाता है I

न हीं उसको कोई मुक्ति से मतलब होता , न ही मोक्ष से मतलब होता I

परम निस्वार्थ क्या है ? परम निस्वार्थ यही है कि आप परमात्मा से जुड़ जाएं I जब आप परमात्मा से जुड़ जाते हैं तब आपके सारे स्वार्थ गिर जाते हैं I जब तक आप नहीं जुड़ते हो उसके ठहराव में नहीं ठहरते हो I कौन से ठहराव में ठहरना है ? जब ठहराव की बातें आ जाती है तो अमर ठहराव हो , क्योंकि ठहराव में भी मन ने ही भ्रांतियाँ खड़ी कर दी है ,..वह बिंदु पर ठहरा देंगे किसी शब्द पर ठहरा देंगे ,..ऐसे नहीं ठहरना, ऐसे ठहरना तो कुछ समय के लिए ठहरने की बात है कि जैसे थक गए, 10 किलोमीटर चल लिए तो 5 मिनट आराम कर लेते हैं ऐसा ठहरना क्या ठहरना I अमर ठहराव होना चाहिए I अमर ठहराव वो ठहराव है जब आप सर्व्वयापिता में ठहरते हो I तो सर्वव्यापी में ठहरने का मतलब है जहां भी हो वहीं आराम है , अमर विश्राम में ठहरना है , तब जाकर आपका कल्याण होगा I

अगर परमात्मा का गुण एक बार चख लिया तो परमात्मा से अगर झूठा भी कोई जुड़ता है तो वो जुड़ ही जाता है I परमात्मा उसको जोड़ ही लेता है I कई लोग कहा करते हैं की क्या परमात्मा की बुराई करने से, परमात्मा की निंदा करने से, हमें नुक़सान होगा ? अरे बिलकुल नुक़सान नहीं होगा I परमात्मा की चाहे आप कुछ भी करिए , चाहे निंदा करिए चाहे गाली निकालिए I तुम जानोगे तभी तो गाली निकालोगे ना I तुम तो जानते ही नहीं की किसको गाली निकाल रहे हो I तुम कहीं ना कहीं काल को ही गाली निकाल दोगे परमात्मा समझकर I परमात्मा को गाली अगर निकालने की क्षमता है आप में तो उसके गुणों को जानना पड़ेगा , पहचानना पड़ेगा उसके गुण को , अगर उसके गुणों को पहचान कर गाली निकालते हो तो वो तो सम्मुखता हुई , परमात्मा प्रसाद देगा आपको , तुम गाली निकाल ही नहीं पाओगे अगर उसके गुण को पहचान लोगे तो I पहचान कर उसकी निंदा करे , गाली दे , तो वह भी सम्मुखता ही कहलाएगी I इतना बड़ा कृपाल, इतना बड़ा दयाल कोई नहीं हो सकता I यहाँ तो लोग बड़े बड़े दंड विधान लेकर चल रहे हैं कि ऐसा करोगे तो ये होगा, वैसा करोगे तो वो होगा , परमात्मा के लिए ऐसा कर दिया तो पता नहीं कितने करोड़ जन्म तुमको नर्क में धकेला जाएगा , बल्कि ऐसा नहीं है वह काल रुपी परमात्मा की बातें करते हैं वह कोई ब्रह्म पुरुष होगा कोई देवता होगा कोई तथाकथित भगवान होगा , उनके दंड विधान हैं I परमात्मा के लिए कोई दंड विधान नहीं है वो परम अकर्ता है I

उसको गाली तो निकाल कर देखिए उसकी निंदा तो करके देखिए, परमात्मा न तुमको अपना लेगा तुम्हारे अंदर कृपा डाल देगा I तुम्हारे अंदर क्षमता ही नहीं उसको गाली देने के लिए, उसकी निंदा करने के लिए भी कृपा चाहिए I नहीं दे सकते I समझ ही नहीं पाओगे क्योंकि , इतना बड़ा ज्ञान अज्ञान से पार होना पड़ेगा आपको, उसको मात्र पहचानने के लिए भी और पहचानने के बाद अगर कोई गाली दे सके संभव ही नहीं I उसके प्रोटोकॉल के अंदर आप आ ही नहीं सकते इस बुद्धि से तो, फिर भी मैं कह रहा हूं क्योंकि ऐसे प्रश्नों के जवाब थोड़ी से सरल शब्दों में देना उचित होता है तो सरल शब्दों में देना यह है कि आप गाली निकालोगे, परमात्मा की निंदा करोगे , कुछ भी करिए आपको किसी भी तरह का दंड नहीं मिलेगा बल्कि प्रसाद मिलेगा कृपा का I तब भी परमात्मा आपको अपनी तरफ खींच लेता है I ऐसी करुणा है उसकी I इसको कहते हैं अमर करुणा I उसका विधान ही ऐसा है , और ऐसे अमर करुणा से अगर आप नहीं जुड़े तो बेहद दयनीय और बेहद दुर्भाग्य वाली स्थिति है आपकी I निश्चित ही आपको ऐसी कृपा से जुड़ना चाहिए I आज हमारे दो विषय थे वह क्लियर हुए की ज्ञान अज्ञान अनुभव फाँस है I परमात्मा सारे पहाड़ों, ज्ञान , अज्ञान और अनुभवों के पहाड़ों पर पैर रखावा कर आप को पार कर देता है I परमात्मा से जुड़ने के बाद ऐसा नहीं है कि आप किसी ज्ञान से अनभिज्ञ रह जाते हो किसी अनुभव से अनभिज्ञ रह जाते हो, किसी ज्ञान और किसी अनुभव से अनभिज्ञ नहीं रहते हो सब परमात्म कृपा से आपके अंदर डाल दिया जाता है और परमात्मा सर्वव्यापी होते हुए भी आप विमुख इसलिए होते हो क्योंकि वह निर्लिप्त अवस्था में सर्वव्यापी है , और आप लिप्त हो इस वजह से आप उसके सर्वव्यापी होते हुए भी विमुख हो I धन्यवाद I



41 views0 comments
bottom of page