दोस्तों ज्ञान शून्य होकर ही अज्ञान शून्य हुआ जा सकता है, क्योंकि अज्ञान से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है I अज्ञान से पीछा तभी छुड़ाया जा सकता है, जब आप ज्ञान से पीछा छुड़ा लो I जितने भी अप्राकृतिक ज्ञान हैं, जिसकी आपको बिल्कुल जरूरत नहीं है, उन ज्ञान से मुक्त हो जाना ही ज्ञान शून्य होना होता है I
मित्रों, अप्राकृतिक ज्ञान वो ज्ञान होते हैं, जो इंसानों ने खुद अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके बनाए हैं, विवेक का इस्तेमाल करके बनाएं हैं I हमारे पास मन का विवेक होता है I आतम विवेक, जो आत्मा से ज्ञान बरसता है मन पर, उससे जो विवेक प्रकट होता है, वो आतम विवेक होता है, वो बिरलों के पास होता है, लेकिन जो विवेक मन से प्रकट होता है, वो मन का विवेक है, वो किसी काम का नहीं है, मन का विवेक केवल जीविकोपार्जन के लिए ही सहयोगी होता है, और हम जितने भी ज्ञान अर्जित करते हैं, जितना भी नॉलेज हम लेते हैं, जो भी अर्जन करना पड़ता है, हमको अचीव करना पड़ता है, मेहनत करके प्राप्त करना पड़ता है, वो केवल जीविकोपार्जन में ही काम आते हैं I
बाकी आत्मज्ञान जो परमात्मा का ज्ञान है, वह हमारी धरोहर है, उसको प्राप्त करने की जरूरत नहीं है, उसको कभी भी किसी को भी प्राप्त करने की जरूरत नहीं पड़ी है I जिसने भी गुरु शरण में जाकर या विभिन्न व्यक्तियों के अनुभवों को पढ़कर या पुस्तकें पढ़ कर ज्ञान अर्जित किया है, वो ज्ञान संसारी ज्ञान ही है, तत्वों का ज्ञान ही है, वो निहतत्व ज्ञान नहीं हो सकता, आत्म ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आतम ज्ञान स्व स्फूर्थ ज्ञान होता है, वह ज्ञान ऐसा ज्ञान होता है, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, केवल उसकी तरफ इशारा किया जा सकता है, और वही ज्ञान आपके मन के समस्त पाखंडों और समस्त भरमों का क्षय करते हैं, विनाश करते हैं I वह ज्ञान अमर ज्ञान होता है, परम ज्ञान होता है, उस ज्ञान का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकते, लेकिन उस ज्ञान की सबसे पहली खासियत ये होती है, कि उस ज्ञान को अर्जित करना ही नहीं पड़ता, वह ऑलरेडी है, ऑलरेडी है ही, वो बरस रहा है I
उसको प्राप्त करने का सबसे सुगम तरीका इस मन को उसकी प्राप्ति मिले, इस मन को उसकी सुगमता मिले, एक्सेस मिले, जिसको कह सकते हैं कि एक्सेस मिले, उसके लिए आपको आत्मा के द्वारा बरसाए जा रहा अखंड रूप से जो अमृत है, उस अमृत का पान करना पड़ेगा, निरंतर पान करना पड़ेगा, उस अमृत का पान योग स्वरूप जो कई लोग तालुए पर करते हैं, वह अमृत पान नहीं है, वह योग साधना से प्राप्त, परिश्रम से प्राप्त, एक रस है, जो क्षणिक होता है,.......... लेकिन जो आत्मा का जो अमृत है, अमृत का मतलब, अमर रस जो है, वह कभी खत्म नहीं होता, उसकी धरण कभी खत्म नहीं होती है I
आप के योग से, सुमिरन से, शब्द सुमिरन से, जितने भी आप रस प्राप्त करोगे, सब क्षणिक रस हैं, कुछ समय के लिए मिलेंगे, वापस बंद हो जाएंगे, लेकिन जो एक रस बरस रहा रस है, जो अमृत है, उसको हम जिह्वा से तालू से नहीं चखते, उसको रोम रोम से चखा जाता है, रोम रोम से पिया जाता है, जब वो रस आप पीते हो, रोम-रोम से पीते हो, जब उसके सम्मुख हो जाते हो, उस आत्मा की कृपा के सम्मुख होते हो, तब आपको वो रस मिलना शुरू होता है I वो रस कोई भौतिक रस नहीं है, वो अभौतिक रस है, वो तात्विक रस नहीं है, वह अतात्विक, निहतत्व वाला रस है, और वो रस रोम रोम से पीया जाता है I
आपके रोम-रोम के भी अगर एक रोम को भी लिया जाए, उस रोम के भी लाख हिस्से कर दिए जाएं, तो वो लाखवाँ हिस्सा भी तृप्त करती है, वो रस इतना अमूल्य, इतना तृप्ति दायक रस है, उस रस को पीते ही सारा अप्राकृतिक ज्ञान शून्य हो जाता है, सारा अज्ञान शून्य हो जाता है, अज्ञान को शून्य करने के पीछे मत भागिए, केवल ज्ञान शून्य कर दीजिए I
दोस्तों इस संसार में हम जितना भी ज्ञान लेते हैं, वो सारे ज्ञान से हमारे मन के अंदर एक ऐसा प्रोसेसर लगा हुआ है, कि उसी ज्ञान को ताना-बाना बुन कर एक derive नॉलेज, उसी ज्ञान से संबंधित सारी नॉलेज हमारे माइंड में इकट्ठा करता है, जब भी हम को कोई भी रिजल्ट की जरूरत होती है, किसी भी ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, तो वो जो पुराना ज्ञान होता है, उसी को प्रोसेस करके हमारा मन हमको इंस्ट्रक्शन देता है I
तो मित्रों, अब तक आपने जो भी आध्यात्मिक ज्ञान पढ़ा है, उसी ज्ञान के अनुरूप आपका माइंड derived होता है, और उसी ज्ञान के अनुरूप आपको आंसर मिला करते हैं, और उसी ज्ञान के अनुरूप आपका विवेक बनता है, कि सामने से आपको क्या मिल रहा है, उसको आप सही माने या गलत माने, और पुराने ज्ञान के अनुरूप ही आपका मन का विवेक प्रकट होता है I
मन उसी पुराने ज्ञान के अनुरूप, उन्हीं वाणियों के ज्ञान के अनुरूप, उन्हीं ग्रंथों के और जो आपने गुरुओं से जो ज्ञान लिया है, वो स्व स्फूर्थ ज्ञान नहीं है जो आत्मा की कृपा से बरसता है, वो ज्ञान नहीं, जो आपने गुरुओं से लिया, ग्रंथों से लिया, वाणी में से लिया, उसी ज्ञान के अनुरूप आपका माइंड प्रोसेस करके एक डिराइव्ड नॉलेज आपके सामने रखता है, निर्णय लेने की क्षमता आपको देता है, तो ये मन का विवेक है, और यह मन का विवेक किसी काम का नहीं है आध्यात्मिक जगत में I
मन का विवेक आपको इसलिए दिया गया है, प्रकृति प्रदत्त इसलिए दिया गया है, ताकि आप सरवाइव कर सको, अपना भरण-पोषण कर सको, आपका स्वयं का और आप पर जो निर्भर लोग हैं उन का भरण पोषण कर सको I इस मन का और इस मन के विवेक का अध्यात्म जगत से दूर-दूर तक कोसों दूर तक कोई लेना देना नहीं है, लेकिन हम अब तक इन्हीं वाणियों के अनुरूप, इन्हीं को पढ़ पढ़ कर हमारे अंदर एक ऐसा डेटा फिट कर लिया है हमने हमारे अंदर, उसी के अनुरूप हम जो विवेक धारण किए हुए हैं, इस वजह से हम उस सत्य से विमुख हो गए हैं, उस आत्मा से विमुख हो गए हैं, और फिर जब आत्मा से विमुख हो गए, तो कैसे आपके रोम-रोम को, आप के प्रत्येक छिद्र के रोम के भी अनंत सूक्ष्मता से कैसे आपको अमृत रस मिलेगा ??? आप तो आत्मा से विमुख हैं, सम्मुख आओगे तो ही तो वो रस मिलेगा आपको, अमृत रस मिलेगा, और जब उसका पान होगा, यह है औषधि, जब उसका पान होगा, तभी आप ज्ञान शून्य होगे, कौन सा ज्ञान शून्य होगे???? , जो यह अप्राकृतिक ज्ञान है I
फिर आपको एक रस उस आत्मा का सहयोग मिलना शुरू हो जाता है, आतम विवेक प्रकट होता है, फिर प्रोसेसिंग बदल जाती है आपकी, फिर आपके मन की प्रोसेसिंग उस अल्टीमेट से जुड़ जाती है, उस infinite से जुड़ जाती है, और फिर जब भी आपको अध्यात्म जगत से संबंधित किसी भी जानकारी की आवश्यकता होती है, तो infinite आपका सोर्स बनता है, और फिर आपको उस infinite से विवेक मिलता है, वो सर्वत्र है, हर जगह है, इतने छोटे से हिस्से में भी हर जगह पर है, इसका अनंतवां हिस्सा कर दोगे, वहां भी मौजूद है, ये अखंड रूप से व्याप्त है, खंडित रूप से व्याप्त नहीं है I जैसे कि शून्य तत्वों में खंडित रूप से व्याप्त है, जहां पर अणु हैं, वहां शून्य नहीं है, लेकिन परमात्मा ऐसे नहीं है, परमात्मा अणुओं में भी है, और जहां शून्य है, वहां पर भी है I
तो इस तरह से ज्ञान शून्य हुआ जाता है, अन्यथा आप अज्ञान के ऐसे चंगुल में फंसते चले जाओगे, आपको पता भी नहीं चलेगा, जो ज्ञान है वही तो आपका अज्ञान बना हुआ है, उसी ने आपको अनंत होने से रोक दिया है I आपकी शरीर की हद से बाहर जाने से रोक दिया है आपको, उसी ने आप को आप की हद में रखा हुआ है, बेहद से पार नहीं होने दिया उसने आपको I
जो हद और बेहद से पार हो जाता है, जो अनंत हो जाता है, वह अनंत से जुड़कर ही अनंत हुआ जा सकता है, तभी आप अपने आप से बाहर जा पाओगे, अपने आप से मतलब समस्त मनों से बाहर जा पाओगे, और वो तभी संभव है, जब उसका रसपान मिलेगा आपको, वो भी निरंतर, कांस्टेंट रसपान मिलेगा, तभी आपको जन्मों जन्मों की प्यास बुझेगी, तभी जाकर आपके जन्मों जन्मों की पीड़ा खत्म होगी, तभी जाकर आपको परम संतुष्टि, और सारे भरमों का निवारण होगा, कोई दूसरा नहीं करेगा वो निवारण I
दूसरों के मत जाइए, मत चरण पकड़िए, अरे वह सर्वसत्ता, वो सबका मालिक हमारे समीप के समीप है, जितना हम समीप नहीं है, उतना वो मालिक हमारे समीप है, हमने उस मालिक को छोड़ दिया, उससे विमुख होकर इन लोगों के पास चले गए I
कल मुझसे एक मित्र पूछ रहा था, कि एक संत ने कहा है कि…………………
“”हरि रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर””
मैंने कहा ये दोनों ही गलत हैं, आपका जो हरि है, वो भी एक जीव है, और गुरु भी जीव है I परमात्मा कभी किसी से नहीं रूठता, लेकिन परमात्मा रूठा हुआ है, वो इस तरह से मानिए, कि आप अगर उससे विमुख हो, तो परमात्मा आपसे रूठा हुआ है I आप किसी हरि की शरण में, किसी गुरु की शरण में जाते हो, तो परमात्मा रुठा हुआ है, रुठा मतलब आप उससे विमुख हो, कृपा नहीं मिल पा रही I जब आप इनसे दूर होंगे, तब जाकर आप उसके सम्मुख होंगे I
जो गुरु है, वह अध्यात्म जगत में काम नहीं आता, गुरु केवल और केवल इस संसार जगत में काम आता है, अगर आपको कोई व्यवसाय सीखना है, तो गुरु करना पड़ता है, सांसारिक किताबें पढ़ने के लिए गुरु करना होता है, कुछ सीखने के लिए गुरु करना होता है, जैसे गिटार सीखना है, एक्टिंग सीखनी है, डांस सीखना है, उर्दू सीखनी है, हिंदी सीखनी है, इंग्लिश सीखनी है, ये सांसारिक कार्यों के लिए गुरु की आवश्यकता होती है I
जब बात आध्यात्मिक की हो गई, आध्यात्म यानि आत्मा, जब बात आत्मा की हो गई, तो गुरु आत्मा ही होगा, अन्य कोई हो ही नहीं सकता, और जिसने आत्मा को गुरु बनाया, उसी ने उस अमृतरस का पान किया, बाकी सब भूखे नंगे प्यासे चले गए, इस संसार से विदा हो गए, विरह में डूब कर मर गए, और मिला क्या ??? ब्रह्म पुरुष,.......वो दुबारा आपमें विरह प्रकट करेंगे, वो तो एक राजनेता की तरह हैं मात्र,... जो उनको मजा आता है आपको परेशानियाँ देने में,... थोड़ा सुख देंगे, जब आप सुख से तृप्त होने लगेंगे, तो अपने आप उनकी याद खत्म होने लगेगी, तो फिर आपको दुख देंगे, फिर दुखों में डाल दिया जाएगा, फिर आप विरह में तड़पोगे, फिर सुख दे दिया जाएगा, फिर दुख दे दिया जाएगा, फिर सुख दे दिया जाएगा,...... इस तरह से आपको निरंतर, अनंतों जन्मों से तड़पाया जा रहा है, और तड़पाया जाता रहेगा I
गुरु लोग आपको गुरु महिमा पढ़ा पढ़ा कर, पढ़ा पढ़ा कर आपके अंदर ऐसा प्रोसेसर फिट कर देते हैं, कि फिर आपका विवेक गुरु संबंधित विवेक हो जाता है, फिर आप जो भी सोचोगे गुरु से संबंधित सोचोगे, जो भी करोगे गुरु से संबंधित करोगे, और फायदा रत्ती भर नहीं मिलेगा, और इस प्रोसेस में भी अगर कोई किसी से फायदा मिलेगा, तो आत्मा ही फायदा दे रही होगी आपको, लेकिन आप क्रेडिट किसी जीव को ही देकर चले आते हो, अरे जो कर रहा है आपके लिए क्रेडिट उसी को ही दीजिए, संपूर्ण भाव उसी को समर्पित करिए, तभी जाकर आप भावातीत अवस्था में आ पाओगे, क्योंकि भाव शरीर का ही गुण है, और भाव से परे जाना ही सत्य में जाना है, वो भावातीत रस ही अमर रस है, मनोतीत रस ही अमर रस है, उस अवस्था में जाने के लिए आपके रोम रोम को सहज करना होगा, रोम-रोम को खोलना होगा, ताकि आप वो रस प्राप्त कर सको, वो रस गिर ही रहा है, निरंतर गिर रहा है I
मित्रों ये कोई इतना बड़ा जटिल काम नहीं है, जटिल हमने बनाया हुआ है, हमने क्यों बनाया हुआ है जटिल????, क्योंकि हमको कुछ अर्जन करना है, क्योंकि हम इस संसार में देखते हैं, कि सब कुछ अर्जित करके पाया जा रहा है, तो यह तत्व की व्यवस्था में सब कुछ अर्जित करके ही मिल रहा है, लेकिन मित्रों वो तो ऑलरेडी मिला हुआ ही है, बस उसको ऐक्सेस करना है, उसको लेना है मात्र, उसके लिए कोई परिश्रम की आवश्यकता नहीं है, और ये बिल्कुल ही सोचने वाली बात है, कि जिसके लिए परिश्रम किया जा रहा है, तो वो फिर परमानेंट कैसे हो सकता है, जिसको अचीव करोगे, वह परमानेंट कैसे हो सकता है, कोई हरे कृष्णा कृष्णा, कृष्णा हरे हरे का जाप करता है, हरे राम राम राम हरे हरे का जाप करता है, या राधेssssss………. इस तरह से जाप कर रहे हैं, इन जाप से आपको परमात्मा मिलेगा, इस जाप से तो आपके अंदर धीरे धीरे धीरे धीरे जब इनका अभ्यास बढ़ेगा, तो एक अभ्यास का रस पैदा होता है हमारे हृदय में, वो आपको मिलने लगता है तो आप समझते हो कि हम आनंदित हो रहे हैं, परमात्मा की कृपा हो रही है, लेकिन गलत है, वो परमात्मा की कृपा नहीं है, अभी आपके पास हृदय जैसा एक इंस्ट्रूमेंट है, जब ये इंस्ट्रुमेंट नहीं रहेगा, तब क्या करोगे आप ????? जीव्हा है, जिससे आप जप कर पा रहे हो, जब जीव्हा नहीं होगी, फिर क्या करोगे आप ???
वो अमर नाम निरंतर चल रहा है, वो अमर नाम इंद्रियातीत है, समस्त इंद्रियों से परे है, किसी भी इंद्री से उसको जपने की आवश्यकता नहीं है I कुछ लोग सिर के ऊपर ध्यान लगवाते हैं, और कहते हैं कि ये सार शब्द है, नहीं मित्रों, यहां भी इंद्री का प्रयोग हो रहा है, और जहां इंद्री का प्रयोग है, क्योंकि ध्यान में इंद्री लग ही रही है, अब आपकी बाह्य दृष्टि ना लगे, आंतरिक दृष्टि लगी रही है, और जो सुरति निरति से अगर आप परे हो जाओ, सुरति अतीत, निरति अतीत हो जाओ, वही मुक्ति है, क्योंकि वही चीज है जो निरंतर चलेगी जहां पर कोई एफ़र्ट्स ना हो, एफर्टलेस हो, प्रयास रहित हो, पूर्ण प्रयास रहित हो, वही आपको रोम-रोम में अमृत पान करवा सकती है, वही आपको आत्मा की सुध में लाकर निश्चल कर सकती है, वही आपको ज्ञान शून्य करके अज्ञान शून्य कर सकती है I
जो आध्यात्मिक जगत का कूड़ा आपने भरा है अब तक अपने मस्तिष्क में, और उस कूड़े से जो आपके अंदर विवेक प्रकट हो रखा है, उस विवेक का नाश करती है, और अमर विवेक, आतम विवेक प्रकट करती है आत्मा, और जब तक आप में अमर विवेक नहीं आएगा, तब तक कुछ नहीं होगा, वो आत्मा अक़र्ता है इसीलिए निरंतर है I जो कर्ता होता है, वो कभी निरंतर नहीं हो सकता I आत्मा अक़र्ता है, पूर्ण अक़र्ता है इसलिए वो निरंतर है, और अभोक्ता है, उसको किसी भी तरह की भोग की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जिसको भी भोग की आवश्यकता होती है, उसमें चेंजमेंटस होते हैं, परिवर्तन होता है, और जहां परिवर्तन है, वहाँ काल है, और जहां काल है, वहां मुक्ति नहीं है I
इसलिए मित्रों, ज्ञान शून्य होकर, स्व स्फूर्थ ज्ञान, जो आत्मा कृपा से मिले, उस infinite से जुड़कर जो मिले आपको, आपके मन को मिले, वही ज्ञान अमर ज्ञान है, उसको ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता, वो केवल और केवल समाधान है, वो आपकी पीड़ा और तृष्णा को मिटा कर आपको प्राप्त करता है, और जीते जी मुक्त करता है, और मरणोपरांत सीधा मोक्ष मिलता है, आप स्वयं आत्मा ही हो जाते हो I सारे शरीर जल जाने पर बचा क्या ??? आत्मा ही बची I अपने आप से पार हो जाओ, ये मन के समस्त तत्वों से पार हो जाना आत्मा है I धन्यवाद I